Tuesday, 2 July 2019

निःस्तब्धता

टूटी है वो निस्तब्धता,
निर्लिप्त जहाँ, सदियों ये मन था!

खामोश शिलाओं की, टूट चुकी है निन्द्रा,
डोल उठे हैं वो, कुछ बोल चुके हैं वो,
जिस पर्वत पर थे, उसको तोल चुके हैं वो,
निःस्तब्ध पड़े थे, वहाँ वो वर्षों खड़े थे,
शिखर पर उनकी, मोतियों से जड़े थे,
उनमें ही निर्लिप्त, स्वयं में संतृप्त,
प्यास जगी थी, या साँस थमी थी कोई,
विलग हो पर्वत से, हुए वो स्खलित,
टूटी थी उनकी, वर्षो की तन्द्रा,
भग्न हुए थे तन, थक कर चूर-चूर था मन,
अब बस, हर ओर अवसाद भरा था,
मन में बाक़ी, अब भी, इक विषाद रहा था,
पर्वत ही थे हम, सजते थे जब तक,
तल्लीन थे, तपस्वी थे तब तक,
टूटा ही क्यूँ तप, बस इक शोर हुआ था जब?
अन्तर्मन, इक विरोध जगा था जब,
सह जाना था पीड़, न होना था इतना अधीर!
सह पाऊँ मैं कैसे, टूटे पर्वत का पीड़!

टूटी है वो निस्तब्धता,
निर्लिप्त जहाँ, सदियों ये मन था!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा

9 comments:

  1. आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल बुधवार (03-07-2019) को "मेघ मल्हार" (चर्चा अंक- 3385) पर भी होगी।
    --
    सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
    --
    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
    सादर...!
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

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  2. बहुत सुंदर प्रस्तुति

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  3. वाह!!पुरुषोत्तम जी ,बहुत खूब!!

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  4. Replies
    1. बहुत-बहुत धन्यवाद आदरणीया जेनी जी। हार्दिक स्वागत है आपका।

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  5. पढकर बहुत अच्छा लगा ...

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