पलट आईं, यूँ उनकी अनुभूतियों के पल,
सूनी सी, दहलीज पर,
स्मृतियां, खटखटाने लगी सांकल!
यूँ कल, कितने, विखंडित थे वो पल,
न था, अन्त, अनन्त तक,
बस इक, टिमटिमाता सा एहसास,
जरा सी चांदनी,
और, दूर तलक, बिखरा सा आकाश,
यूँ ही, अचानक,
संघनित हो उठी, स्मृतियां,
बरस पड़े बादल!
छूकर, बह चली, इक अल्हड़ पवन,
यूँ, बज उठे, सितार सारे,
लरज उठी, कूक सी कोयलों की,
गा उठे, पल,
थिरकने लगे, उनकी पांवों के पायल,
यूँ ही, छनन-छन,
भूल कर राहें, यह पथिक,
जाए, वहीं चल!
ये कैसी तृप्ति, ये कैसी आत्ममुग्धि!
मंत्रमुग्ध हो, एक प्यासा,
बिन पिये ही, ज्यूं पी चुका सुधा,
सदियाँ जी चुका,
उस गगन पर, एक हारिल उड़ चला,
स्वप्न ही बुन चला,
यूँ ही, कहीं ना, टूट जाए,
ख्वाबों के महल!
पलट आईं, यूँ उनकी अनुभूतियों के पल,
सूनी सी, दहलीज पर,
स्मृतियां, खटखटाने लगी सांकल!
(सर्वाधिकार सुरक्षित)
Bahut sunder
ReplyDeleteबहुत बहुत धन्यवाद
Deleteअतिसुंदर
ReplyDeleteबहुत बहुत धन्यवाद
Deleteसादर नमस्कार ,
ReplyDeleteआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल रविवार (1-5-22) को "अब राम को बनवास अयोध्या न दे कभी"(चर्चा अंक-4417) पर भी होगी।
आप भी सादर आमंत्रित है,आपकी उपस्थिति मंच की शोभा बढ़ायेगी।
------------
कामिनी सिन्हा
बहुत बहुत धन्यवाद
Deleteबहुत सुन्दर प्रस्तुति
ReplyDeleteबहुत बहुत धन्यवाद
Deleteबहुत उम्दा आदरणीय ।
ReplyDeleteबहुत बहुत धन्यवाद
Delete