रिक्त क्षणों में, रंग कोई भर देता,
तो यूं, फागुन न होता!
हँसते, वे लम्हे, बहते, वे लम्हे,
कुछ कहते-कहते, रुक जाते वे लम्हे,
यूं रिक्त, न हो जाते,
सिक्त पलों से,
कुछ रंग भरे, पल चुन लेता!
तो यूं, फागुन न होता!
हवाओं की, सरगोशी सुनकर,
यूं न हँसती, बेरंग खामोशी डसकर,
गीत, कई बन जाते,
गर, वो गाते,
राग भरे, आस्वर चुन लेता!
तो यूं, फागुन न होता!
यूं तो बिखरे सप्तरंग धरा पर,
पथराए नैन, कितने बेरंग यहां पर,
स्वप्न, वही भरमाते,
जो भूल चले,
स्वप्न वो ही, फिर रंग लेता!
रिक्त क्षणों में, रंग कोई भर देता,
तो यूं, फागुन न होता!
- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा
(सर्वाधिकार सुरक्षित)
आदरणीय सर , सादर प्रणाम । आज बहुत दिनों बाद आपके ब्लॉग पर आना हुआ । आपकी यह रचना बहुत ही सुंदर और भावपूर्ण लगी । सच है , यदि मन प्रसन्न न हो तो बाहर कितने भी रंग हों , सब कुछ बेरंग लगता है। ऐसे में पहले की मधुर स्मृतियों को याद कर मन यही कहेगा कि पुराने दिन और पुराने स्वप्न लौट आयें । एक बात और , मैं ने पिकचले वर्ष नवम्बर में अपना एक नया ब्लॉग आरंभ किया "चल मेरी डायरी" नाम से जो की मेरी कृतज्ञता डायरी का अंश है । मेरा आपसे अनुरोध है उस ब्लॉग पर आ कर अपना आशीष दें ।
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