गिनता रहा मैं, ठहरे वो पल सारे,
थे, जो,
कुछ तुम्हारे, कुछ हमारे!
शान्त थे बड़े, बड़े निष्काम थे,
पल वो ही, तमाम थे,
बह चली थी, जिस ओर, जिन्दगी,
ठहरी, वक्त की वो ही धार,
बनी आधार थी,
बस, गिनता रहा मैं ....
थे, जो,
कुछ तुम्हारे, कुछ हमारे!
असीमित चंचलता, यूं सिमेटे,
समय, खुद में लपेटे,
देकर, ठहरी जिंदगी को, चपलता,
एक सूने मन को, चंचलता,
रही यूं रोकती,
बस, देखता रहा मैं .....
थे, जो,
कुछ तुम्हारे, कुछ हमारे!
मंत्रमुग्ध करते, वो स्निग्ध पल,
ओढ़े, होठों पे छल,
रही खींचती, बस, अपनी ही ओर,
कैसी, अनोखी सी वो डोर,
कैसा ये ठौर,
बस, ठहरा रहा मैं .....
गिनता रहा मैं, ठहरे वो पल सारे,
थे, जो,
कुछ तुम्हारे, कुछ हमारे!
(सर्वाधिकार सुरक्षित)
गिनता रहा मैं, ठहरे वो पल सारे,
ReplyDeleteथे, जो,
कुछ तुम्हारे, कुछ हमारे!
बहुत सुंदर
आपकी लिखी रचना सोमवार 20 फरवरी 2023 को
ReplyDeleteपांच लिंकों का आनंद पर... साझा की गई है
आप भी सादर आमंत्रित हैं।
सादर
धन्यवाद।
संगीता स्वरूप
गिनता रहा मैं, ठहरे वो पल सारे,
ReplyDeleteथे, जो,
कुछ तुम्हारे, कुछ हमारे!
वाह! बहुत खूब,सादर नमन आपको 🙏
जीवन की स्मृतियों की अनमोल धरोहर को सहलाती भावपूर्ण रचना पुरुषोत्तम जी |
ReplyDeleteबहुत दिनों बाद आपके ब्लॉग पर आकर बहुत अच्छा लगा |सस्नेह शुभकामनाएं |
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