एहसान किया, जो तुमने अपनाया!
इतना ही, कह पाऊँ मैं!
किसी सुन्दरता का, बन पाता श्रृंगार,
किसी गले का, बन पाता हार,
पर, आकर्षण इतना भी नहीं मुझमें,
सुंदर इतना भी, नहीं मैं!
एहसान किया, जो तुमने अपनाया!
इतना ही, कह पाऊँ मैं!
कौन पूछता, बेजान पड़े पत्थरों को,
सदियों से, उजड़े हुए घरों को,
जीवन्त कोई, उपसंहार नहीं जिसमे,
कुछ-कुछ, ऐसा ही मैं!
एहसान किया, जो तुमने अपनाया!
इतना ही, कह पाऊँ मैं!
मैं तो, दूर पड़ा था, एकान्त बड़ा था,
इस मन में, व्यवधान जरा था,
कौन यहाँ, जो संग मेरे पथ पर चले,
इस लायक भी नही मैं!
एहसान किया, जो तुमने अपनाया!
इतना ही, कह पाऊँ मैं!
है इस उर में क्या, समझे कौन यहाँ,
नादां सा मन, ऐसा और कहाँ!
पर, विराना सा, जैसे हो इक वादी,
वैसा ही, फरियादी मैं!
एहसान किया, जो तुमने अपनाया!
इतना ही, कह पाऊँ मैं!
एहसान बड़ा, जो, आ बसे मुझ में,
स्वर लहरी बन, गा रहे उर में,
अपलक, सुनता हूँ अनसुना गीत,
बन कर, इक राही मैं!
एहसान किया, जो तुमने अपनाया!
इतना ही, कह पाऊँ मैं!
श्रृंगार बन सका तेरा, उद्गार ले लो,
इन साँसों का, उपहार ले लो,
इक निर्धन, और दे पाऊँ भी क्या,
याचक हूँ, तेरा ही मैं!
एहसान किया, जो तुमने अपनाया!
इतना ही, कह पाऊँ मैं!
- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा
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