Sunday, 20 December 2015

मन रुपी वृक्ष

निस्तब्ध विशाल आकाश के मध्य,
मन रुपी वृक्ष !
मानो चाहे मौन तोड़ कुछ कहना,

पर निष्ठुर वक्त की दायरे संकीर्ण इतने कि,
कौन सुने इनकी मन की बातें?
कौन करे इंतजार?

अब केवल मौन है,
निस्तब्धता है मन के भीतर,
जैसे निस्तब्ध रात की सियाह चादर पर,
टंकी सितारों की लड़ियाँ बिखर गई हैं।

खनकती हंसी खो गई है हवाओं के साथ,
सिर्फ इक नाम होठों पे ठहरा है युगों से,
ख़ामोशी की दीवार तोड़ना चाहते हैं कुछ शब्द,
लेकिन वक्त के हाथों मजबूर हैं,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,

क्यूंकि वक्त ने छोड़ा है केवल ''मौन'',,,,,,,,,,
जैसे किसी बियावान निर्जन देवालय में,
पसरा हो ईश्वर का नाम...!
पूजनेवाला कोई नहीं,
बचे हो सिर्फ एहसास..............!

मेरी माँ का आशीष

मेरी मां द्वारा उच्चारित तत्क्षण् आशीष शब्द...

लो मेरा आशीष
प्रतिक्षण प्रगति पथ पर बढ़ चलो तुम
तुम्ही आशा, तुम्ही स्वपनों की बनो साकार प्रतिमा,
दे रही आशीष तुझको, भावना की भावभीनी भेंट ले लो,

चाहता है मन तुझे आरूढ़ देखूं, प्रगति के उत्तुंग शिखरों पर,
ग्यान का आलोक ले विद्या विनय व पात्रता से 
तुम लिखो इतिहास नूतन,गर्व जिसपर कर सकें हम, 

वाटिका के सुमन सम विकसित रहो तुम,
सुरभि से जन जन के मन को जीत लो तुम,
स्नेह सेवा देशहित तुम कर सको सबकुछ समर्पण,
मार्ग के काटों को फूलों मे बदल लो,
भावना की भावभीनी भेंट ले लो,

शब्द को शक्ति नहीं कि भावना को मुखर कर दे, 
समझ पाओ तुम हमे (मां-गुरु)
ईश्वर तुम्हारी बुद्धि को भी प्रखर कर दे,
हम वो संतराश है....जो पत्थरों में फूकते हैं प्राण, 
कृति मेरी तुम बनो कल्याणकारी,
ले सको तो स्नेह का उपहार ले लो,
भावना की भावभीनी भेंट ले लो।

-- रचयिता श्रीमति सुलोचना वर्मा (मेरी मां)

Its blessings that my mother said these lines to me, which i could capture in words, at Saharsa (Bihar)

एक कतरा आँसू

एक कतरा आँसू
जो छलक गए नैनों से,
जो देखी दुनिया की बेरुखी,
सिमट गए फिर उन्ही नैंनों मे।

आसू के जज्बात यहां समझे कौन,
अपनी-अपनी सबकी दुनियां,
सभी है खुद में गुम और मौन,
ज्जबातो की यहां सुनता कौन।

बंदिशे हैं सारी जज्बातों पर,
कोमलताएं कही खो चुकी हैं
बेरुखी के सुर्ख जर्रों में,
आँसूं भी अब सोचते बहूं या सूख ही जाऊं...!

वो मधुर आवाज

वो मधुर आवाज जीवन का आवर्त लिए
कानों मे गूंजती सदा प्रिय अहसास लिए,

आवाज.... जिसमे है माधूर्य,
कोमल सा रेशमी दिलकश तान,
जैसे कोयल ने छेड़ी हो सदा,
कूक से उसकी सिहर उठा हो विराना,
पत्तियों को छेड़ा हो हवाओं ने,
उसकी सरसराहट जैसे रही है गूंज,
भँवरे जैसे सुना गए हो गीत नया,
लहरें जैसे बेकल हों सुनाने को कोई बात ।

बारबार वही आवाज जाती है क्यूँ कर
मन को बेकल और उद्विग्न,
हृदय के झरमुट मे गूंजती वो शहनाई,
क्युँ सुनने को होता मैं बेजार
जबकि मुझे पता है,
वो आवाज तो है कही मुझसे दूर,
नहीं है उसपे वश मेरा,
यकी की हदों से से कही दूर
जहां नही पहुच पाते मेरे हाथ,
कल्पना ने तोड़ दिए है अपने दम,

वक्त भी है कितना बेरहम,
भाग्य भी है कितना निष्ठुर,
ईश्वर का निर्णय भी है कितना कठोर
क्युं नही पूरी कर सकता मेरी लघु याचना,
बस वो मधुरआवज ही तो मांगी है हमने,
प्रिय अहसास की ही तो है प्यास,
जीवन का आवर्त ही तो मांगा है मैनें।

जीवन के इस पार या
जीवन के उस पार,
मैं सुन पाऊंगा वो मधुर आवाज,
मेरी क्षुधा न होगी कम, प्यास रहेगी सदा ।

अंतहीन इंतजार..!!!!!!!!

बस इंतजार........और इंतजार......!

सदियों इंतजार ही तो करते रहे हम तुम्हारा,
विहँसते फूलों के चेहरे कब मुरझाए,
धमनियों के रक्त कब सूख गए,
बस, पता ही नहीं चला.............

अनंत इंतजार की घड़ियों को भी हम,
गिन न सके,
चुन न सके राहों से
वो चंद खुशियां,
रहे सिर्फ अतहीन इंतजार
तुम्हे ढेर सारा प्यार,
और कुछ युगों के इंतजार
हां, बस ...........  कुछ युगों के इंतजार.....।

युग जो पल में बीत जाएंगे,
यादों में तेरी हम ही बस जाएंगे,
भूला न सकोगे तुम मुझको भी,
मृत्यु जब होगी सामने
आएंगे बस तुम्हें याद हम ही......

खत्म होगी तब ये इंतजार,
आसमानों मे बादलों के पीछे कहीं,
जब होगी अपनी इक अंतहीन मुलाकात,
साधना मेरी होगी तब सार्थक,
मेरी पूजा होगी तब सफल,
युगों युगों के इंतजार का इक दिन, 
जब मिल जाएगा प्रतिफल.......

Saturday, 19 December 2015

वादों का क्या ?

कहते है, वादों का क्या?
वादे अक्सर टूट जाया करते है पर कोशिशें कामयाब होती है।

लगाव हो हमें जिनसे, उनके टूटने पर तो
पीड़ा भी असीम होती है, कराह भी अथाह,
वादा तो है, प्रष्फुटित विवेक की अन्तरिम प्रवाह,
मानवीय संवेदनाओं की भावपूर्ण चेतना का प्रष्फुटन,
ये जगा जाते है भावनात्मक उम्मीद,
जहां जिन्दगियों के परिणाम होते है प्रभावित,

हर वो शै जो टूटने वाली है,
स्थायित्व का है अभाव उनमें,
जैसे ,,,नींद टूट जाती है, सपने टूट जाया करते हैं,
दिल टूट जाया करते है, शीशा टूट जाता हैं,
और तो और रिकार्ड टूट जाते हैं,
स्थाई नही है ये जरा भी, न है इनका मलाल इन्हें।

फिर वादा निभाने की हमारी निष्ठा
कहां और क्युं हो जाती है विलीन,
मानवीय भावनाओं के उपर भी क्या कुछ और हैं
जो कर जाती हैं हमें विवश वादे तोड़ने को
जिन्दगियों से खिलवाड़ करने को.......

क्यूँ न हम वादा निभाने की कोशिश करें,
दिलों को टूटने से रोके जिन्दगियों को निखार दें
आत्मा पर और बोझ ना पड़े
सुकूँ और करार मिले,,,,,,

Friday, 18 December 2015

भरम

मन को भरम ये हो चला था कि,
पल्लवी पुनः मुखरित हुआ यहीं कहीं,
मानो अधर सेे फूट पड़े पल्लवित छंद,
प्राणों से उठने लगे मधुर आवर्त मंद यूंहीं ।

पर भरम मृदु टूट गया बन स्वर्ण स्वप्न,
अनुभूति की मधु आभा गई विखर हो नग्न,
अब पल्लवी तो बन चुकी पूर्ण शाखा विशाल,
हैं जिनके खुद की अलग दिशाएं और अतृप्त चाह,
खुद को पूजित होने चाह लिए

सचमुच तुम करो उत्पन्न आकांक्षाएं,
पल्लवित प्रफुल्ल आशीष प्रेरणा-पन्य ,
खोलो प्रत्यक्ष  छवि में ब्रजेश,
अशेष मृत्तिका-प्रणयि धूसरित  वेश,
पुरूषोत्तम प्रफुल्लित देता आशीष।

फूल...थोड़ा तुम्हारा, थोड़ा हमारा


फूल...थोड़ा तुम्हारा, थोड़ा हमारा,
जीवन जीने की
अविस्मरणीय सीख दे जाते हैं,
भले ही जियें एक ही दिन,
पर कहा वे घबराते हैं,
फूल हँसते ही रहते हैं,
खिला सब उनको पाते हैं,
जीते है बस चन्द दिन,
पर बात बड़ी कह जाते हैं,

रंग कब बिगड़ सका उनका,
रंग लाते दिखलाते है,
मस्त हैं सदा बने रहते,
उन्हें मुसुकाते पाते हैं,
भले ही जियें एक ही दिन,
पर कहा वे घबराते हैं,
फूल हँसते ही रहते हैं,
खिला सब उनको पाते हैं ।

मन पाए न विश्राम क्यूँ?


मन पाए न विश्राम क्युँ?
चातक बन चाहे उड़ जाऊँ,
खुले गगन की सैर करूँ,
आसमान को बाहों मे भर लाऊं

मन की चाह अति निराली,
गति इसकी लांघे व्योम,
बात कहे वो अजब अनोेखी,
पर विवेक करता इसके विलोम,

मन की बात सुनुं तो,
जग कहता, अपने मन की करता है
दूसरों की तो सुनता ही नही,
बावरा है यूं ही डग भरता रहता है

इन्सानों के मन आपस मे कब मिलते है,
यहां तो मन पे पहरे हैं
मन की निराली बातें रह जाती,
मन मे ही व्यथित, कुचलित,
मन की तो भावनाएं ही जग में
कही जाती "कुत्सित"

मन तू कर विश्राम जरा,
अपनी पीड़ा को दे आराम जरा,
जग की वर्जनाओं का तू रख ख्याल,
तुझे भी तो जीना है इसी कोलाहल में,
पूरी संजीदगी के साथ,

अपनी संवेदनाओं को ना तु और जगा,
मन कर तू विश्राम जरा, विश्राम जरा!

Thursday, 17 December 2015

मेरी प्रेरणा-मेरी जीवन संगिनी

मेरी अंत:मानस से दूर,
एक शहर अन्जाना सा,
पता नहीं था मुझे, जहां बसती है
मेरे जीवन को उद्वेलित करनेवाली,
मेरी जीवन संगिनी, मेरी प्रेरणा।

वही शहर जहां ईश्वरीय कृपा हुई,
मैं चयन परीक्षा में उत्तीर्ण हुआ
और जीवन में सफलता की नींव पड़ी,
शायद मेरी प्रेरणा ने याचना की थी इसकी,
वो अनजाना, पर प्रभाव तो तब भी था।

पहली बार जब उसकी झलक देखी,
मन नें अकस्मात् कुछ भावनाएं जगी,
अपनत्व-सानिध्य का एहसास हुआ,
और हो भी क्युँ न, बड़े भाव से उसने,
परोसा सा मनचाहा लाजवाब व्यंजन।

जीवन की जैसे सीमा रेखा खिच गई
तमाम शिखर चूमता गया,
अपनी सारी चिन्ताओं से विमुक्त हो
मै लांघता गया समय की दहलीज,
वो मेरे कुल की चहेती जो बन गई थी।

दो दो पुत्रियों को नवाजा उसने,
स्वयं मे महसूस संपूर्ण कमियों को
पुत्रियों की उपलब्धियों से संजोया,
जीवन की उत्कंठाओं मे बस एक।

खुद को सर्वस्व निछावर कर,
जीवन साथी के आधार को मजबूत बनाना
उन्नति कुल की है जिसकी साधना,
वही है मेरी प्रेरना, मेरी जीवन संगिनी।

मेरी प्रेरणा कृतज्ञ हूँ मैं तुम्हारा ,,,