Sunday, 20 December 2015

मन रुपी वृक्ष

निस्तब्ध विशाल आकाश के मध्य,
मन रुपी वृक्ष !
मानो चाहे मौन तोड़ कुछ कहना,

पर निष्ठुर वक्त की दायरे संकीर्ण इतने कि,
कौन सुने इनकी मन की बातें?
कौन करे इंतजार?

अब केवल मौन है,
निस्तब्धता है मन के भीतर,
जैसे निस्तब्ध रात की सियाह चादर पर,
टंकी सितारों की लड़ियाँ बिखर गई हैं।

खनकती हंसी खो गई है हवाओं के साथ,
सिर्फ इक नाम होठों पे ठहरा है युगों से,
ख़ामोशी की दीवार तोड़ना चाहते हैं कुछ शब्द,
लेकिन वक्त के हाथों मजबूर हैं,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,

क्यूंकि वक्त ने छोड़ा है केवल ''मौन'',,,,,,,,,,
जैसे किसी बियावान निर्जन देवालय में,
पसरा हो ईश्वर का नाम...!
पूजनेवाला कोई नहीं,
बचे हो सिर्फ एहसास..............!

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