मन को भरम ये हो चला था कि,
पल्लवी पुनः मुखरित हुआ यहीं कहीं,
मानो अधर सेे फूट पड़े पल्लवित छंद,
प्राणों से उठने लगे मधुर आवर्त मंद यूंहीं ।
पर भरम मृदु टूट गया बन स्वर्ण स्वप्न,
अनुभूति की मधु आभा गई विखर हो नग्न,
अब पल्लवी तो बन चुकी पूर्ण शाखा विशाल,
हैं जिनके खुद की अलग दिशाएं और अतृप्त चाह,
खुद को पूजित होने चाह लिए
सचमुच तुम करो उत्पन्न आकांक्षाएं,
पल्लवित प्रफुल्ल आशीष प्रेरणा-पन्य ,
खोलो प्रत्यक्ष छवि में ब्रजेश,
अशेष मृत्तिका-प्रणयि धूसरित वेश,
पुरूषोत्तम प्रफुल्लित देता आशीष।
पल्लवी पुनः मुखरित हुआ यहीं कहीं,
मानो अधर सेे फूट पड़े पल्लवित छंद,
प्राणों से उठने लगे मधुर आवर्त मंद यूंहीं ।
पर भरम मृदु टूट गया बन स्वर्ण स्वप्न,
अनुभूति की मधु आभा गई विखर हो नग्न,
अब पल्लवी तो बन चुकी पूर्ण शाखा विशाल,
हैं जिनके खुद की अलग दिशाएं और अतृप्त चाह,
खुद को पूजित होने चाह लिए
सचमुच तुम करो उत्पन्न आकांक्षाएं,
पल्लवित प्रफुल्ल आशीष प्रेरणा-पन्य ,
खोलो प्रत्यक्ष छवि में ब्रजेश,
अशेष मृत्तिका-प्रणयि धूसरित वेश,
पुरूषोत्तम प्रफुल्लित देता आशीष।
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