Monday, 27 February 2017

फासलों मॆं माधूर्य

इन फासलों में पनपता है माधूर्य का अनुराग....

बोझिल सा होता है जब ये मन,
थककर जब चूर हो जाता है ये बदन,
बहती हुई रक्त शिराओं में,
छोड़ जाती है कितने ही अवसाद के कण,
तब आती है फासलों से चलकर यादें,
मन को देती हैं माधूर्य के कितने ही एहसास,
हाँ, तब उस पल तुम होती हो मेरे कितने ही पास....

इन फासलों में पनपता है माधूर्य का अनुराग.....

अनियंत्रित जब होती है ये धड़कन,
उलझती जाती है जब हृदय की कम्पन,
बेवश करती है कितनी ही बातें,
राहों में हर तरफ बिखरे से दिखते है काँटे,
तब आती है फासलों से चलकर यादें,
मखमली वो छुअन देती है माधूर्य के एहसास,
हाँ, तब उस पल तुम होती हो मेरे कितने ही पास....

इन फासलों में पनपता है माधूर्य का अनुराग.....

लघु-क्षण

हो सके तो! लौटा देना तुम मुझको मेरा वो लघु-क्षण....

क्षण, जिसमें था सतत् प्रणय का कंपन,
निरन्तर मृदु भावों संग मन का अवलम्बन,
अनवरत साँसों संग छूटते साँसों का बंधन,
नैनों के अविरल अश्रृधार का आलिंगन,
हो सके तो! लौटा देना तुम मुझको मेरा वो लघु-क्षण....

क्षण, जिसमें हूक सी उठी थी मृत प्राणों में,
पाया था इक नया जनम, दो रुके से साँसों नें,
फूटे थे किरण आशा के डूबे से इन नैनों में,
शुष्क हृदय प्रांगण में बज उठे थे राग मल्हार,
हो सके तो! लौटा देना तुम मुझको मेरा वो लघु-क्षण....

क्षण, जिसमें हों जीवन की आशा के कण,
जर्जर मन वीणा के तार जहाँ करते हों सुर कंपन,
मृत-प्राण भी पाते हों, नवजीवन का आलिंगन,
कूकते हों कोयल के गीत हृदय के मनप्रांगण,
हो सके तो! लौटा देना तुम मुझको मेरा वो लघु-क्षण....

Friday, 24 February 2017

मैं शिव हूँ

मैं शिव हूँ।  मैं शिव हूँ। मैं शिव हूँ।

विभत्स हूँ... विभोर हूँ...
मैं समाधी में ही चूर हूँ...

मैं शिव हूँ।  मैं शिव हूँ। मैं शिव हूँ।

घनघोर अँधेरा ओढ़ के...
मैं जन जीवन से दूर हूँ...
श्मशान में हूँ नाचता...
मैं मृत्यु का ग़ुरूर हूँ...

मैं शिव हूँ।  मैं शिव हूँ। मैं शिव हूँ।

साम – दाम तुम्हीं रखो...
मैं दंड में सम्पूर्ण हूँ...

मैं शिव हूँ।  मैं शिव हूँ। मैं शिव हूँ।

चीर आया चरम में...
मार आया “मैं” को मैं...
“मैं”, “मैं” नहीं..."मैं” भय नहीं...

मैं शिव हूँ।  मैं शिव हूँ। मैं शिव हूँ।

जो सिर्फ तू है सोचता...
केवल वो मैं नहीं...

मैं शिव हूँ।  मैं शिव हूँ। मैं शिव हूँ।

मैं काल का कपाल हूँ...
मैं मूल की चिंघाड़ हूँ...
मैं मग्न...मैं चिर मग्न हूँ...
मैं एकांत में उजाड़ हूँ...

मैं शिव हूँ।  मैं शिव हूँ। मैं शिव हूँ।

मैं आग हूँ...मैं राख हूँ...
मैं पवित्र राष हूँ...
मैं पंख हूँ...मैं श्वाश हूँ...
मैं ही हाड़ माँस हूँ...
मैं ही आदि अनन्त हूँ...

मैं शिव हूँ।  मैं शिव हूँ। मैं शिव हूँ।

मुझमें कोई छल नहीं...
तेरा कोई कल नहीं...
मौत के ही गर्भ में...
ज़िंदगी के पास हूँ...                      
अंधकार का आकार हूँ...
प्रकाश का मैं प्रकार हूँ...

मैं शिव हूँ।  मैं शिव हूँ। मैं शिव हूँ।

मैं कल नहीं मैं काल हूँ...
वैकुण्ठ या पाताल नहीं...
मैं मोक्ष का भी सार हूँ...    
मैं पवित्र रोष हूँ... मैं ही तो अघोर हूँ...

मैं शिव हूँ।  मैं शिव हूँ। मैं शिव हूँ।

(संग्रहित,  रचनाकार-अज्ञात)

Monday, 20 February 2017

सँवरती रहो

ऐ मेरी संगिनी, देखूँ जब जब भी मैं तुमको......

सजी-सँवरी सी दिखना, दिखना जब भी तुम मुझको,
हो माथे पे बिंदिया, हाथों में क॔गन, मांग सिंदूरी तेरी हो,
चुनरी हो सर पे, इन होठों पे बस इक हँसी सजी हो,
आँखों की भंगिमाएँ सम्मोहक हों, श्रृंगार नई हों।।

ऐ मेरी संगिनी, देखूँ जब जब भी मैं तुमको....

तुम झूमकर बलखाती, अंकपाश में भर लेती मुझको,
आँखों में चमक,बातों में खनक,पंछी सी यूँ चहकती हो,
सुरीली सी स्वर हो, राग पिरोती मिश्री सी तेरी बातें हो,
आशाओं के सावन हों, बस आकर्षण के पल हों।।

ऐ मेरी संगिनी, देखूँ जब जब भी मैं तुमको....

बगिया सा तेरा आँचल, मुस्कुरा कर पुकारती मुझको
खनकते कंगन,छनकते पायल, कुछ कह जाती मुझको,
घटाओं से तेरे गेशू, मन की आकाश पर लहराते हों,
सजते हों रंग होली के, मौसम त्योहारों के जैसे हों।

ऐ मेरी संगिनी, देखूँ जब जब भी मैं तुमको....
यूँ ही खिलती सँवरती रहो तुम, देखूँ जब भी मैं तुमको..

Friday, 17 February 2017

मौन से अधर

काश! उनसे कुछ कह भी देते ये मेरे मौन से अधर!

बस अपलक देखता ही रह गया था ये नजर,
मन कहीं दूर बह चला था पराया सा होकर,
काँपते से ये अधर बस रह गए यूँ हीं थिरक कर,
अधरों से फूट सके ना, कँपकपाते से ये स्वर!
काश! मौन अधरों की मेरी ये भाषा तुम पढ लेते!

काश! मेरी अभिलाषा व्यक्त करते मेरे मौन से अधर!

फूट पड़े थे मन में प्रेम के मेरे बेस्वर से गीत,
हृदय की धुन संग मन गा रहा था प्रेम का गीत,
पर वाणी विहीन होकर रह गई मेरी वो संगीत,
दे ना सका कोई उपहार तुमको ऐ मेरे मनमीत,
काश! स्वर जो फूट सके ना अधरों से तुम सुन लेते!

काश! कुछ क्षण ही उनको रोक लेते मेरे मौन से अधर!

वो क्षण बस यूँ ही रह गया था मन तड़प कर,
दूर तक जाते हुए जब, तुमने देखा भी न था मुड़कर,
पर हृदय की ये डोर कहीं ले गए थे तुम खींचकर,
अव्यक्त मन की अभिलाषा रह गई कहीं खोकर,
काश! मन की कोरी अभिलाषा को तुम ही स्वर देते!

काश! उन नैनों मे नीर देख न तड़पते मेरे मौन से अधर!

है कैसी ये विडंबना, न्याय ये कैसा तेरा हे ईश्वर,
क्षणभर ही उसको भी मिल पाया था जीवन का स्वर,
अब विरहा में कहीं कलपते है उसके भी अधर,
अवसाद भरे हृदय में उठता है पल पल कैसा ये ज्वर,
काश! बूँदें अँसुवन की उन नैनों में ना छलके होते?

काश! अब तो उनसे कुछ कह पाते ये मेरे मौन से अधर!

Tuesday, 7 February 2017

मृदु पल

सुखद स्पर्श दे गए, मृदु अनुभूति के थिरकते पल...

ऊबा था जग की बेमतलब बातों से ये दिल,
बिंध चुका था कटीले शब्दों के नश्तर से ये दिल,
चैन कहीं था मन का और कहीं पर था ये दिल,
वेदना के दंश कई झेल चुका था ये दिल,
मन को ऐसे में छू गए, स्नेह भरे दो मीठे से पल...

कुछ पल को ही तो मिला था दिल को वो मृदु संसर्ग!!!
व्यथित मन की पीड़ा हर गया स्नेह का वो स्पर्श,
मृदु अनुभूति की घनी सी छाँव दे गया था वो संसर्ग,
जैसे याचक की चाह पूर्ण कर गया था वो संसर्ग,
करुणा के सागर में मन को डुबो गया था वो संसर्ग....

कनकन नीर तन को जैसे कर गई हो शीतल,
घनेरी धूप में, छाँव सघन सी जैसे दे गई हो पीपल,
मिला बिलखते बचपन को जैसे स्नेह का आँचल,
बाँध तोड़ जैसे बह गई हो दरिया का जल,
मृदु अनुभूति के सुखद स्पर्श मन ढूंढता है हर पल......

Monday, 6 February 2017

कर्मवीर

पर मै कहता रहा तू कर्मवीर बन तकदीर क्या कर लेगी!

तपिश उस खलिश की,
तसव्वुर उन सुलगते लम्हों का,
डसती रही ताउम्र नासूर बन मुझको,
जबकि मुझको भी था पता,
छल किया है तकदीर ने मेरी मुझसे ही।

पर मै कहता रहा तू कर्मवीर बन तकदीर क्या कर लेगी!

जलन उस छल की,
ताप उस तकदीर की संताप का,
छलती रही ताउम्र दीदार देकर मुझको,
जबकि मुझको भी था पता,
छल रही हैं तकदीर आज भी मुझको ही।

पर मै कहता रहा तू कर्मवीर बन तकदीर क्या कर लेगी!

लगन मेरे कर्मनिष्ठा की,
करती रही मान मेरे स्वाभिमान का,
छल न सकी तकदीर आत्मसम्मान को मेरे,
जबकि मुझको भी था पता,
वश नही चलता तकदीर पर किसीका कहीं।

पर मै कहता रहा तू कर्मवीर बन तकदीर क्या कर लेगी!

Friday, 3 February 2017

रंगमई ऋतुराज

आहट पाकर त्रृतुराज की, सजाई है सेज वसुन्धरा ने....

हो रहा पुनरागमन, जैसे किसी नवदुल्हन का,
पीले से रंगों की चादर फैलाई हैं सरसों ने,
लाल रंग फूलों से लेकर मांग सजाई है उस दुल्हन ने,
स्वर में कंपन, कंठ में राग, आँखों में सतर॔गे सपने....

जीवन का अक्षयदान लेकर, दस्तक दी है त्रृतुराज ने....

हो रहा पुनरागमन, जैसे सतरंगी जीवन का,
सात रंगों को तुम भी भर लेना आँखों में,
उगने देना मन की जमीन पर, दरख्त रंगीन लम्हों के,
खिला लेना नव कोपल दिल की कोरी जमीन पे....

विहँस रहा ऋतुराज, बसन्ती अनुराग घोलकर रंगों में....

अब होगा आगमन, फगुनाहट लिए बयारों का,
मस्ती भरे तरंग भर जाएंगे अंग-अंग में,
रंग बिखेरेंगी ये कलियाँ, रंग इन फूलों के भी निखरेंगे,
भींगेगे ये सूखे आँचल, साजन संग अठखेली में....

गा रहा आज ऋतुराज, डाली-डाली कोयल की सुर मे...

Sunday, 29 January 2017

पत्थर दिल

न जाने कब पत्थर हुआ, मासूम सा ये दिल मेरा.....

हैरान हूँ मैं, न जाने कहां खोई है मेरी संवेदना?
आहत ये दिल जग की वेदनाओं से अब क्यूँ न होता?
देखकर व्यथा किसी कि अब ये बेजार क्यूँ न रोता?
व्यथित खुद भी कभी अपने दुखों से अब न होता!
बन चुका है ये दिल, अब पत्थर का शायद!
न तो रोता ही है ये अब, न ही ये है अब धड़कता!

न जाने कब पत्थर हुआ, मासूम सा ये दिल मेरा.....

हैरान हूँ मै, न जाने कहां खोई दिल की मासूमियत?
महसूस क्यूँ न अब ये उमरते से संवेदनाओं को करता?
मासूम सी अपनी हँसी क्यूँ लबों पे अब न बिखेरता?
दर्द के पल समेटकर क्यूँ चुपचाप खुद ही घुटता?
अपनाकर किसी ने, तोड़ा है ये दिल शायद!
न ही मुस्कुराता है ये अब, न ही अब ये संभलता!

न जाने कब पत्थर हुआ, मासूम सा ये दिल मेरा.....

Thursday, 26 January 2017

उठो देश

उठो देश! यह दिवस है स्वराज का, गण के तंत्र का,
पर क्युँ लगता? यह गणराज्य हमारी है बिखरी सी,
जंजीरों में जकरा है मन, स्वाधीनता है खोई सी,
पावन्दियों के हैं पहरे, मन की अभिलाषा है सोई सी,
अंकुश लगे विचारों पे, कल्पनाशीलता है बंधी सी,
फिर क्युँ न तोड़कर बंधन, रच ले अपना गणतंत्र हम?

आओ सोचे मिलकर, स्वाधीन बनाएँ मन अपना हम,
खींच दी थी किसी ने, लकीरें पाबन्दियों की इस मन पर
अवरुद्ध था मन का उन्मुक्त आकाश सरजमीं पर,
हिस्सों में बट चुकी थी कल्पनाशीलता कहीं न कहीं पर,
विवशता कुछ ऐसा करने की जो यथार्थ से हो परे,
ऐसे में मन करे भी तो क्या? जिए या मरे?

उन्मुक्त मन, आकर खड़ा हो सरहदों पे जैसे,
कल्पना के चादर आरपार सरहदों के फैलाए तो कैसे,
रोक रही हैं राहें ये बेमेल सी विचारधारा,
भावप्रवणता हैं विवश खाने को सरहदों की ठोकरें,
देखी हैं फिर मैने विवशताएँ आर-पार सरहदों के,
न जाने क्यूँ उठने लगा है अंजाना दर्द सीने में..

उठो देश, जनवरी 26 फिर लिख लें अपने मन पर हम..