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Thursday, 26 January 2017

उठो देश

उठो देश! यह दिवस है स्वराज का, गण के तंत्र का,
पर क्युँ लगता? यह गणराज्य हमारी है बिखरी सी,
जंजीरों में जकरा है मन, स्वाधीनता है खोई सी,
पावन्दियों के हैं पहरे, मन की अभिलाषा है सोई सी,
अंकुश लगे विचारों पे, कल्पनाशीलता है बंधी सी,
फिर क्युँ न तोड़कर बंधन, रच ले अपना गणतंत्र हम?

आओ सोचे मिलकर, स्वाधीन बनाएँ मन अपना हम,
खींच दी थी किसी ने, लकीरें पाबन्दियों की इस मन पर
अवरुद्ध था मन का उन्मुक्त आकाश सरजमीं पर,
हिस्सों में बट चुकी थी कल्पनाशीलता कहीं न कहीं पर,
विवशता कुछ ऐसा करने की जो यथार्थ से हो परे,
ऐसे में मन करे भी तो क्या? जिए या मरे?

उन्मुक्त मन, आकर खड़ा हो सरहदों पे जैसे,
कल्पना के चादर आरपार सरहदों के फैलाए तो कैसे,
रोक रही हैं राहें ये बेमेल सी विचारधारा,
भावप्रवणता हैं विवश खाने को सरहदों की ठोकरें,
देखी हैं फिर मैने विवशताएँ आर-पार सरहदों के,
न जाने क्यूँ उठने लगा है अंजाना दर्द सीने में..

उठो देश, जनवरी 26 फिर लिख लें अपने मन पर हम..

Thursday, 22 September 2016

सरहदें

देखी हैं आज फिर से मैने लकीरें सरहदों के,
दर्द अन्जाना सा, न जाने क्यूँ उठने लगा है सीने में..

लकीरें पाबन्दियों के खींच दी थी किसी ने,
खो गई थी उन्मुक्तता मन की उमरते आकाश के,
हिस्सों में बट चुकी थी कल्पनाशीलता,
विवशता कुछ ऐसा करने की जो यथार्थ सो हो परे,
ऐसे में मन करे भी तो क्या? जिए या मरे?

उन्मुक्त मन, आकर खड़ा हो सरहदों पे जैसे,
कल्पना के चादर आरपार सरहदों के फैलाए तो कैसे,
रोक रही हैं राहें ये बेमेल सी विचारधारा,
भावप्रवणता हैं विवश खाने को सरहदों की ठोकरें,
ऐसे में मन करे भी तो क्या? जिए या मरे?

देखी हैं आज फिर से मैने लकीरें सरहदों के,
दर्द अन्जाना सा, न जाने क्यूँ उठने लगा है सीने में..

Wednesday, 21 September 2016

उरी...की गोली

जैसे, धँस गई हो एक गोली उसके सीने के अन्दर भी......

चली थी अचानक ही गोली उरी की सीमा पर,
धँस गई थी एक गोली उसके सीने में भी आकर,
बिखर चुके थे सपने उसके लहू की थार संग,
सपने उन आँखों मे देकर, आया था वो सीमा पर...

उफ क्या बीती होगी उस धड़कते दिल पर,
अचानक रूँधा होगा कैसे उस अबला का स्वर,
रह रह कर उठते होंगे मन में अब कैसे भँवर,
जब उसे मिली होगी, रहबर के मरने की खबर....

गुम हुआ है उसके सर से आसमाँ का साया,
निर्जीव सा है जीवन, निढाल हुई उसकी काया,
शेष रह गईं है यादें और इन्तजार सदियों का,
पथराई सी आँखों में, चाह कहाँ अब जीवन का......

जैसे, धँस गई हो एक गोली उसके सीने के अन्दर भी.....