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Tuesday, 19 January 2021

झुर्रियाँ

बोझ सारे लिए, उभर आती हैं झुर्रियाँ,
ताकि, सांझ की गर्दिश तले, 
यादें ओझिल न हो, सांझ बोझिल न हो!

उम्र, दे ही जाती हैं आहट!
दिख ही जाती है, वक्त की गहरी बुनावट!
चेहरों की, दहलीज पर, 
उभर आती हैं.....
आड़ी-टेढ़ी, वक्र रेखाओं सी ये झुर्रियाँ,
सहेजे, अनन्त स्मृतियाँ!

वक्त, कब बदल ले करवट!
खुरदुरी स्मृति-पटल, पे पर जाए सिलवट!
चुनती हैं एक-एक कर,
उतार लाती हैं.....
जीवन्त भावों की, गहरी सी ये पट्टियाँ,
मृदुल छाँव सी, झुर्रियाँ!

घड़ी अवसान की, सन्निकट!
प्यासी जमीन पर, ज्यूँ लगी हो इक रहट!
इस, अनावृष्ट सांझ पर,
न्योछार देती हैं...
बारिश की, भीगी सी हल्की थपकियाँ, 
कृतज्ञ छाँव सी, झुर्रियाँ!

बोझ सारे लिए, उभर आती हैं झुर्रियाँ,
ताकि, सांझ की गर्दिश तले, 
यादें ओझिल न हो, सांझ बोझिल न हो!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
   (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Thursday, 13 April 2017

वो नव पाती

मृदुल कोमल सकुचाती सी वो इक नव पाती,
कोपलों से झांकती, नव बसंत में वो लहलहाती,
मंद बयार संग कभी वो झूमती मुस्कुराती,
कभी सुनहले धूप की, गर्म बाहों में वो झूल जाती,
नादान सी वो नव पाती, मृदुलता ही रही लुटाती!

जैठ की दोपहर, जला गई तन उस पात की,
वो किरण धूप की, रही तन को जलाती आग सी,
मौसमों से इतर, विहँसती रही थी वो पात भी,
रही निखरती वो पात, देती सघन छाँव सी,
सकुचाती बलखाती वो पाती, मृदुलता रही लुटाती!

सुकोमल मृगनयनी बिखरती रही वो नव पाती,
रंग बदलते हैं ये मौसम, नादान न थी ये जानती,
वही मंद सी बयार अब बन चुकी थी आंधी,
टूटी वो डाल से, अस्तित्व को अब कहीं तलाशती,
चिलचिलाती धूप में, झुलस चुकी थी वो पाती!

Tuesday, 7 February 2017

मृदु पल

सुखद स्पर्श दे गए, मृदु अनुभूति के थिरकते पल...

ऊबा था जग की बेमतलब बातों से ये दिल,
बिंध चुका था कटीले शब्दों के नश्तर से ये दिल,
चैन कहीं था मन का और कहीं पर था ये दिल,
वेदना के दंश कई झेल चुका था ये दिल,
मन को ऐसे में छू गए, स्नेह भरे दो मीठे से पल...

कुछ पल को ही तो मिला था दिल को वो मृदु संसर्ग!!!
व्यथित मन की पीड़ा हर गया स्नेह का वो स्पर्श,
मृदु अनुभूति की घनी सी छाँव दे गया था वो संसर्ग,
जैसे याचक की चाह पूर्ण कर गया था वो संसर्ग,
करुणा के सागर में मन को डुबो गया था वो संसर्ग....

कनकन नीर तन को जैसे कर गई हो शीतल,
घनेरी धूप में, छाँव सघन सी जैसे दे गई हो पीपल,
मिला बिलखते बचपन को जैसे स्नेह का आँचल,
बाँध तोड़ जैसे बह गई हो दरिया का जल,
मृदु अनुभूति के सुखद स्पर्श मन ढूंढता है हर पल......

Sunday, 17 April 2016

मिथ्या अहंकार

बिखरे पड़े हैं कण शिलाओं के उधर एकान्त में,
कभी रहते थे शीष पर जो इन शिलाओं के
वक्त की छेनी चली कुछ ऐसी उन पर,
टूट टूटकर बिखरे हैं ये, एकान्त में अब भूमि पर ।

टूट जाती हैं ये कठोर शिलाएँ भी घिस-घिसकर,
हवाओं के मंद झौकों में पिस-पिसकर,
पिघल जाती हैं ये चट्टान भी रच-रचकर,
बहती पानी के संग, नर्म आगोश मे रिस-रिसकर।

शिलाओं के ये कण, इनकी अहंकार के हैं टुकड़े,
वक्त की कदमों में अब आकर ये हैं बिखरे,
वक्त सदा ही किसी का, एक सा कब तक रहता,
सहृदय विनम्र भाव ने ही, दिल वक्त का भी है जीता।

ये अहम भाव तो, मिथ्या भ्रम होते हैं मन के,
टूट जातेे हैं अहंकार यहाँ हम इन्सानों के,
मृदुलता मन की, सर्वदा ही भारी अहम पर,
कोमलता हृदय की, राज करती सर्वदा इस जग पर।