देखे ना, फिर मुड़कर ये हवाएँ!
आए कौन सी दिशा से?
जाए कौन दिशा?
तप्त सुलगते, तन को सहलाकर,
झुलसते, मन को बहलाकर,
देकर क्षणिक दिलासा, कोरा सा ढ़ाढ़स!
क्षण भर को देकर राहत,
दूजे ही क्षण, कर दे ये आहत,
बहलाए, मन भटकाए,
जाने, कौन दिशा ले जाए?
देखे ना, फिर मुड़कर ये हवाएँ!
रुख इनके, मोड़ दूँ कैसे?
बंध तोड़ दूँ कैसे?
भीनी सी खुश्बू, साँसों में भर कर,
चल देती है, मन को हर कर
चैन जरा सा देकर, कर जाती है बेवश!
जगा कर, सोई सी चाहत,
देकर, अन्जानी की अकुलाहट,
सताए, मुँह मोड़ जाए,
अन्जान, दिशा चली जाए?
देखे ना, फिर मुड़कर ये हवाएँ!
ऐ पंछी, जा कह उनसे!
लौट कर आए वो!
जाए ना फिर, यूँ मेरा चित्त लेकर,
यूँ क्षणिक, दिलासा देकर,
बूँद-बूँद को प्यासी, है ये ऋतु पावस!
ना दे, कोरा सा ढ़ाढ़स,
ठहर जरा, दे दे मन को राहत,
फिर चाहे इठलाए,
लेकिन, ठहर यहीं वो जाए!
पर देखे ना, मुड़कर ये हवाएँ!
- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा
बेहतरीन रचना आदरणीय 🙏
ReplyDeleteसादर आभार आदरणीया अभिलाषा जी।
Deleteबहुत सुंदर रचना
ReplyDeleteसादर आभार आदरणीया अनुराधा जी।
Deleteआपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल गुरुवार (12-09-2019) को "शतदल-सा संसार सलोना" (चर्चा अंक- 3456) पर भी होगी।
ReplyDelete--
सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
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डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
सादर आभार
Deleteबहुत खूब ... महक सी उठ रही है जैसे ...
ReplyDeleteलाजवाब रचना ...
एक अंतराल हुए आपसे स आभासी दुनियाँ में संपर्क हुए। आशा है आप स्वस्थ और सकुशल हैं । साधुवाद व प्रणाम ।
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