Wednesday, 4 September 2019

कहीं न कहीं

न चाह कर भी, चाहतों से दूर थे हम!
जिक्र उनकी बातों में, अब भी थी मेरी ही!
कहीं न कहीं...
उनकी यादों में, जिन्दा जरूर थे हम!

कोई कल्पना, पूरा न था उनका मेरे बिन!
सारे सपने, अधूरे थे उनके मेरे बिन!
मेरी यादों से, उसने रंगे थे जीवन के पन्ने,
श्रृंगार उसने किए थे, आँखों से मेरी,
दूर थे हम, उस कल्पना में जरूर थे हम!

कहीं न कहीं...

खामोश थे लब, अधूरी थी बातें मेरे बिन!
अधजगी, उनींदी थी रातें मेरे बिन!
किसी काम के, न थे आसमाँ के सितारे,
हजारों थे वो, मगर न थे मुझसे प्यारे,
दूर थे हम, उनकी जेहन में जरूर थे हम!

कहीं न कहीं...

खनकती न थी, उनकी चूड़ियाँ मेरे बिन!
उजरी सी थी, वो ही दुनियाँ मेरे बिन!
चुप सी थी, उनके पायलों की रुन-झुन,
गुम-सुम से थे, उन होठों के तरन्नुम,
दूर थे हम, उन चुप्पियों में जरूर थे हम!

कहीं न कहीं...

न चाह कर भी, चाहतों से दूर थे हम!
फिक्र उनकी बातों में, अब भी थी मेरी ही!
कहीं न कहीं...
उनकी यादों में, जिन्दा जरूर थे हम!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा

6 comments:

  1. आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शुक्रवार (06-09-2019) को    "हैं दिखावे के लिए दैरो-हरम"   (चर्चा अंक- 3450)    पर भी होगी।
    --
    चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
    जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
    --
    शिक्षक दिवस की हार्दिक शुभकामनाओं के साथ 
    सादर...!
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

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  2. जी नमस्ते,
    आपकी लिखी रचना शुक्रवार ६ सितंबर २०१९ के लिए साझा की गयी है
    पांच लिंकों का आनंद पर...
    आप भी सादर आमंत्रित हैं...धन्यवाद।

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  3. Replies
    1. शुभकामनाओं व प्रेरक शब्दों हेतु धन्यवाद आदरणीया ।

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