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Tuesday, 20 April 2021

तृष्णा

परिंदा, मन का, पर खोले चाहे उड़ना,
रुके कहाँ, मानव की तृष्णा!

मानव की खातिर, कितना मुश्किल है खोना,
अपूरित ख़्वाहिशों का, जग उठना,
उस अनदेखे की, ख्वाहिशों संग सोना,
उनको भी, मन चाहे पा लेना,
निर्णय-अनिर्णय के, उन दोराहों पर, 
ले आती है तृष्णा!

परिंदा, मन का, पर खोले चाहे उड़ना,
रुके कहाँ, मानव की तृष्णा!

मन, पाए ना राहत, जग जाए जब ये चाहत,
अन्जाने ही, मन होता जाए आहत,
भ्रम की इक, किश्ती में, वो ढूंढे राहत,
जाने, पर स्वीकारे ना ये सत्य,
चाहत के, उस अनिर्णीत दोराहों पर, 
ले आती है तृष्णा!

परिंदा, मन का, पर खोले चाहे उड़ना,
रुके कहाँ, मानव की तृष्णा!

खो दे कुछ भी, उन अनिश्चितताओं के बदले,
पाना चाहे, उन इच्छाओं को पहले,
भले ही इच्छाओं को, इच्छाएं ही डस ले,
कैसी आशा, कैसा यह स्वप्न,
अंधियारे से, इक विस्तृत दोराहों पर,
ले आती है तृष्णा!

परिंदा, मन का, पर खोले चाहे उड़ना,
रुके कहाँ, मानव की तृष्णा!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
  (सर्वाधिकार सुरक्षित)
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इच्छा
1. कामना, चाह, ख्वाहिश; 2. रुचि।

इक्षा
1. नज़र; दृष्टि 2. देखने की क्रिया; दर्शन 3. विचारना; विवेचन करना; पर्यालोचन।

Tuesday, 10 September 2019

हवाएँ

देखे ना, फिर मुड़कर ये हवाएँ!

आए कौन सी दिशा से?
जाए कौन दिशा?
तप्त सुलगते, तन को सहलाकर,
झुलसते, मन को बहलाकर,
देकर क्षणिक दिलासा, कोरा सा ढ़ाढ़स!
क्षण भर को देकर राहत,
दूजे ही क्षण, कर दे ये आहत,
बहलाए, मन भटकाए,
जाने, कौन दिशा ले जाए?

देखे ना, फिर मुड़कर ये हवाएँ!

रुख इनके, मोड़ दूँ कैसे?
बंध तोड़ दूँ कैसे?
भीनी सी खुश्बू, साँसों में भर कर,
चल देती है, मन को हर कर 
चैन जरा सा देकर, कर जाती है बेवश!
जगा कर, सोई सी चाहत,
देकर, अन्जानी की अकुलाहट,
सताए, मुँह मोड़ जाए,
अन्जान, दिशा चली जाए?

देखे ना, फिर मुड़कर ये हवाएँ!

ऐ पंछी, जा कह उनसे!
लौट कर आए वो!
जाए ना फिर, यूँ मेरा चित्त लेकर,
यूँ क्षणिक, दिलासा देकर,
बूँद-बूँद को प्यासी, है ये ऋतु पावस!
ना दे, कोरा सा ढ़ाढ़स,
ठहर जरा, दे दे मन को राहत,
फिर चाहे इठलाए,
लेकिन, ठहर यहीं वो जाए!

पर देखे ना, मुड़कर ये हवाएँ!

                - पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा

Saturday, 6 October 2018

संवेदनाएं

विलख-विलख कर जब कोई रोता है,
क्यूँ मेरा उर विचलित होता है?
ग़ैरों की मन के संताप में,
क्यूँ मेरा मन विलाप करता है?
औरों के विरह अश्रुपात में,
बरबस यूँ ही क्यूँ....
द्रवित हो जाती हैं ये मेरी आँखें.....

परेशाँ करती है मुझको मेरी संवेदना!
संवेदनशीलता ही मुझको करती है आहत!
सिवा तड़प के पाता ही क्या है मन?
क्यूँ रोऊँ मैं औरों के गम में,
क्यूँ ढ़ोऊँ मैं बेवजह के ये सदमें,
बरबस यूँ ही क्यूँ.....
भीगे तन्हाई में ऐसे ये मेरी आँखें...

आहत मुझको ही क्यूँ कर जाते है?
संताप भरे वो पलक्षिण,
उन नैनों के श्रावित कण,
मेरे ही हृदय क्यूँ प्रतिश्राव दिए जाते हैं,
विमुख क्यूँ ना हो पाता हूँ मैं,
बरबस यूँ ही क्यूँ....
छलक सी जाती है ये मेरी आँखें....

सिवा तड़प के पाता ही क्या है मन?
काश! पत्थर सा होता ये मन,
न ही आहत करती मुझको ये संवेदनाएं,
भावुक झण भर भी ना ये होता,
पाता राहत की कुछ साँसें,
बरबस ही न यूं....
सैलाब सी उफनती ये मेरी आँखें......