लगाए, खुद पे पहरा,
हर शख्स, है कितना अधूरा!
कितनी गांठें, बंध गई, इस मन के अन्दर,
प्यासा रह गया, कितना समुन्दर,
बहता जल, नदी का, ज्यूं कहीं हो ठहरा,
लगाए, खुद पे पहरा,
हर शै, यहां कितना अधूरा!
मुरझा चुकी, कितनी कलियां, बिन खिले,
असमय, यूं बिखरे फूल कितने,
बागवां से, इक बहार, कुछ यूं ही गुजरा,
लगाए, खुद पे पहरा,
हर बाग, है कितना अधूरा!
बरस सके ना, झूमकर, बादल चाहतों के,
ढ़ंग, मौसमों के, बदले-बदले,
वो बादल, आसमां से कुछ यूं ही गुजरा,
लगाए, खुद पे पहरा,
हर चाह, है कितना अधूरा!
तमन्नाओं के डोर थामे, बिताई उम्र सारी,
प्यासी रह गई, जैसे हर क्यारी,
दूर, यूं ढ़ल रहा सांझ, ओढ़े रंग सुनहरा,
लगाए, खुद पे पहरा,
हर रंग, है कितना अधूरा!
लगाए, खुद पे पहरा,
हर शख्स, है कितना अधूरा!
(सर्वाधिकार सुरक्षित)
तमन्नाओं के डोर थामे, बिताई उम्र सारी,
ReplyDeleteप्यासी रह गई, जैसे हर क्यारी,
दूर, यूं ढ़ल रहा सांझ, ओढ़े रंग सुनहरा,
लगाए, खुद पे पहरा,
हर रंग, है कितना अधूरा!
बहुत सुंदर अभिव्यक्ति
हार्दिक आभार ....
Deleteहर चाह, है कितना अधूरा! बहुत बढ़िया।
ReplyDeleteहार्दिक आभार ....
Deleteआपकी लिखी रचना "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" आज रविवार 03 अक्टूबर 2021 शाम 3.00 बजे साझा की गई है.... "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!
ReplyDeleteहार्दिक आभार ....
Deleteवाह, बहुत सुंदर।
ReplyDeleteहार्दिक आभार ....
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