शायद दो ही दिन हो, यह जीवन!
पा लेने को, है उन्मुक्त गगन,
है छू लेने को, उम्मीदों के कितने घन!
खुला-खुला, उद्दीप्त ये आंगन,
बुलाता, ये सीमा-विहीन क्षितिज,
भर आलिंगन!
शायद दो ही दिन हो, यह जीवन!
जितना सौम्य, उतना सम्यक,
रहस्यमयी उतनी ही, यह दृष्टि-फलक!
धारे रूप कई, बदले रंग कई!
हर रूप अनोखा, हर रंग सुरमई,
और मनभावन!
शायद दो ही दिन हो, यह जीवन!
पर अंजाना आने वाला क्षण!
ना जाने कौन सा पल, है कितना भारी!
किस पल, बढ़ जाए लाचारी!
ना जाने, ले आए, कौन सा पल,
अन्तिम क्षण!
शायद दो ही दिन हो, यह जीवन!
समेट लूँ, जो शेष है जीवन!
भर लूँ दामन में, कर लूँ इक आलिंगन!
कंपित हो, सुसुप्त धड़कन!
जागृत रहे, किसी की वेदना में,
ये हृदयांगण!
शायद दो ही दिन हो, यह जीवन!
- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा
(सर्वाधिकार सुरक्षित)
शायद दो ही दिन हो, यह जीवन!
ReplyDeleteसमेट लूँ, जो शेष है जीवन!
भर लूँ दामन में, कर लूँ इक आलिंगन!
कंपित हो, सुसुप्त धड़कन!
जागृत रहे, किसी की वेदना में,
ये हृदयांगण!.... यथार्थ को दर्शाती हुईं रचना
बहुत बहुत धन्यवाद
Deleteबहुत सुंदर।
ReplyDeleteबहुत बहुत धन्यवाद
Delete