बड़ा ही मौन, मन का वो भीनापन,
ले चला कौन!
वो, अपनत्व और अपनापन!
शायद, बरस चुके हैं, बादल!
बिखर चले हैं, घन,
इक शून्य सा है, अन्दर,
ले चला कौन,
उन बादलों से, वो भीगापन!
यूं, शब्द सारे, हो चले हैं गूंगे!
क्यूं, लबों को ढूंढें?
हैं पुकार सारे, बेअसर,
ले चला कौन,
मुखर शब्दों से, वो पैनापन!
बेनूर, बेरंग सी मेरी परछाईं,
संग, बची है, बस,
वे हंस रही मुँह फेरकर,
ले चला कौन,
इस परछाईं से, मेरी लगन!
अब कहां, आती है वो सदा!
रंग, नैनों से जुदा,
राह, खुद गए हैं मुकर,
ले चला कौन,
सदाओं से, वो दिवानापन!
बड़ा ही मौन, मन का वो भीनापन,
ले चला कौन!
वो, अपनत्व और अपनापन!
(सर्वाधिकार सुरक्षित)
आपकी लिखी रचना ब्लॉग "पांच लिंकों का आनन्द" रविवार 23 अक्तूबर 2022 को साझा की गयी है....
ReplyDeleteपाँच लिंकों का आनन्द पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!
बहुत सुंदर
ReplyDeleteसुन्दर प्रस्तुति
ReplyDeleteसमय का चक्कर सदैव घूमता रहता है।परिवर्तन संसार का नियम है।पर मन फिर से वही चीजेँ ढूँढने की कोशिश करता है जो दूर जा चुकी होती है।एक मार्मिक अभिव्यक्ति पुरुषोत्तम जी।बहुत अच्छा लिखा है आपने।सादर बधाई और आभार।
ReplyDeleteदीपोत्सव पर आपको सपरिवार हार्दिक बधाई और शुभकामनाएं 🎊🎊🎉🎉🎀🎀🎁🎁🌺🌺♥️🌹🙏
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