मन, तू जागा है क्यूँ?
क्यूँ, है थामे!
अनगिनत, अंजान रिश्तों का, धागा तू?
खुद कहाँ, कब, तुझको पता!
कब, जुड़ा रिश्ता!
लग गए, कब अदृश्य से गाँठ कई!
कब गुजर गए, बन सांझ वही!
तो जागा, क्यूँ लिखता?
व्यथा की, वही एक अन्तःकथा तू!
मन, तू जागा है क्यूँ?
क्यूँ, है थामे!
अनगिनत, अंजान रिश्तों का, धागा तू?
कल, पल न बन जाए भारी!
यूँ, निभा न यारी!
न कर, उन अनाम रिश्तों की सवारी,
कल, कौन दे, तुझको यूँ ढ़ाढ़स,
न यूँ, बेकल पल बिता,
यूँ न गढ़, व्यथा की अन्तःकथा तू!
मन, तू जागा है क्यूँ?
क्यूँ, है थामे!
अनगिनत, अंजान रिश्तों का, धागा तू?
- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा
(सर्वाधिकार सुरक्षित)
खुद कहाँ, कब, तुझको पता!
ReplyDeleteकब, जुड़ा रिश्ता!
लग गए, कब अदृश्य से गाँठ कई!
कब गुजर गए, बन सांझ वही!
तो जागा, क्यूँ लिखता?
व्यथा की, वही एक अन्तःकथा तू... बहुत सुंदर रचना
विनम्र आभार आदरणीया शकुन्तला जी।
Deleteभावों में डूबे मन की दशा को परिभाषित करती नायाब रचना।
ReplyDeleteविनम्र आभार आदरणीया जिज्ञासा जी।
Deleteआपकी लिखी रचना ब्लॉग "पांच लिंकों का आनन्द" ( 3020...अपना ऑक्सीजन सिलिंडर साथ लाइए!) पर गुरुवार 6 मई 2021 को साझा की गई है.... पाँच लिंकों का आनन्द पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!
ReplyDelete🙏
Deleteआपकी लिखी रचना ब्लॉग "पांच लिंकों का आनन्द" ( 3020...अपना ऑक्सीजन सिलिंडर साथ लाइए!) पर गुरुवार 6 मई 2021 को साझा की गई है.... पाँच लिंकों का आनन्द पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!
ReplyDeleteसादर आभार आदरणीय
Deleteवाह👌
ReplyDeleteविनम्र आभार आदरणीय शिवम जी
Deleteखुद कहाँ, कब, तुझको पता!
ReplyDeleteकब, जुड़ा रिश्ता!
लग गए, कब अदृश्य से गाँठ कई!
कब गुजर गए, बन सांझ वही!
तो जागा, क्यूँ लिखता?
व्यथा की, वही एक अन्तःकथा तू!
ये अपने वश में कहाँ कि अदृश्य से रिश्ता जुड़े या ना जुड़े , ये तो जुड़ ही जाता है जब जुड़ना होता है। व्यथा की अंतर्कथाओं का भी अपना महत्त्व है।
बहुत सुंदर, भावपूर्ण रचना। बधाई।
विनम्र आभार आदरणीया मीना जी।
Deleteबहुत ही भावुक रचना। ये मन से की गई संवाद मेरे मन को छू गई। बेहतरीन! हाँ...आप सदैव ही बेहतरीन है।
ReplyDeleteविनम्र आभार आदरणीय प्रकाश जी।
Deleteबहुत सुन्दर !
ReplyDeleteमेरा दर्द गीत बन जाए,
मेरी व्यथा कथा बन जाए !
विनम्र आभार आदरणीय गोपेश जी। ।।
Deleteमर्मस्पर्शी रचना
ReplyDeleteविनम्र आभार आदरणीया अभिलाषा जी।
Deleteजब कविता आपने मन से लिखी है पुरुषोत्तम जी तो पढ़ने वाले के मन को तो छुएगी ही। मैंने महसूस कर लिया है उसे जो आपके दिल से निकलकर आपकी क़लम के ज़रिये हम तक पहुँचा है।
ReplyDeleteविनम्र आभार आदरणीय जितेन्द्र माथुर जी। ।।।
Deleteवाह!बहुत सुंदर 👌
ReplyDeleteविनम्र आभार आँचल जी।
Deleteदिल को छूती बहुत ही सुंदर रचना,पुरुषोत्तम भाई।
ReplyDeleteविनम्र आभार आदरणीया ज्योति बहन।
Deleteमतवाले मन का सुन्दर वर्णन
ReplyDeleteविनम्र आभार प्रीति जी।।।।
Deleteबहुत खूबसूरत, "अनगिनत अंजान रिश्तों का धागा तू"
ReplyDeleteविनम्र आभार आदरणीया भारती जी।
Deleteअंतर्मन को छू गई आपकी कविता नीरज जी की कुछ कविताएं याद आ गई, मन को बहुत गहन स्पर्स देती रचना।
ReplyDeleteइतने बड़े सम्मान के लिए आभारी हूँ आपका आदरणीया कुसुम जी।
Deleteविनम्र नमन।।।।।
कल, पल न बन जाए भारी!
ReplyDeleteयूँ, निभा न यारी!
न कर, उन अनाम रिश्तों की सवारी,
कल, कौन दे, तुझको यूँ ढ़ाढ़स,
न यूँ, बेकल पल बिता,
यूँ न गढ़, व्यथा की अन्तःकथा तू!
आभासी जगत में पहली बार वर्षा जी के जाने से इसी तरह की अनुभूति हुई पुरुषोत्तम जी। कई बार यही लगता है कि कहीं भी मन को जोड़ लेना बहुत दर्द का अनुभव देकर जाता है। भावपूर्ण रचना मन को स्पर्श कर गईं,🙏🙏💐💐
कुछ ऐसी ही अनुभूतियों ने मुझे प्रेरित भी किया है आदरणीया रेणु जी। बहुत-बहुत धन्यवाद।
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