दरिया, इक ठहरा सा मैं,
चंचल हो,
उतने ही तुम!
है इक, चुप सा पसरा,
झंकृत हो उठता, वो सारा पल गुजरा,
सन्नाटों से, अब कैसी फरमाईश,
शेष कहां, कोई गुंजाइश!
समय, कोई गुजरा सा मैं,
विह्वल हो,
उतने ही तुम!
उठती, अन्तर्नाद कभी,
मुखरित हो उठते, गूंगे फरियाद सभी,
कर उठते, वे भी इक फरमाईश,
क्षण से, रण की गुंजाइश!
बादल, इक गुजरा सा मैं,
अरमां कई,
भीगे-भीगे तुम!
गुजरुंगा, इक चुप सा,
हठात्, उभरता, ज्युं अंधेरा घुप सा,
रहने दो, अधूरी इक फरमाईश,
उभरने दो, इक गुंजाइश!
इक अंत हूं, गुजरा सा मैं,
पंथ प्रखर,
उतने ही तुम!
(सर्वाधिकार सुरक्षित)
आपकी लिखी रचना ब्लॉग "पांच लिंकों का आनन्द" बुधवार 30 अगस्त 2023 को साझा की गयी है......... पाँच लिंकों का आनन्द पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!
ReplyDeleteअथ स्वागतम शुभ स्वागतम।
अलग ही रंग
ReplyDeleteसुन्दर
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