हौले-हौले, मद्धिम होती रही रात,
सुबह तक, अधूरी हर बात!
स्वप्न सरीखी, अनुभूतियां,
कंपित होते, कितने ही पल,
उलझे हैं, इन आंखों पर,
ज्यूं, जागी है रात!
हौले-हौले, मद्धिम होती रही रात,
सुबह तक, अधूरी हर बात!
सुलझे कब, ऐसे उलझन,
विस्मित, दो तीर, खड़ा मन,
अपना लूं, सुबह के पल,
या, मद्धिम सी रात!
हौले-हौले, मद्धिम होती रही रात,
सुबह तक, अधूरी हर बात!
भ्रमित करे, ये मृगतृष्णा,
खींचे स्वप्न भरे कंपित पल,
सहलाए, भूले मन को,
हौले-हौले, ये रात!
हौले-हौले, मद्धिम होती रही रात,
सुबह तक, अधूरी हर बात!
सुबह के, ये भीगे पात,
अलसाई, उंघती हर छटा,
वो नन्हीं सी, इक घटा,
कहती अधूरी बात!
हौले-हौले, मद्धिम होती रही रात,
सुबह तक, अधूरी हर बात!
(सर्वाधिकार सुरक्षित)
सुबह के, ये भीगे पात,
ReplyDeleteअलसाई, उंघती हर छटा,
वो नन्हीं सी, इक घटा,
कहती अधूरी बात... अतिसुन्दर रचना
आपकी लिखी रचना ब्लॉग "पांच लिंकों का आनन्द" पर गुरुवार 05 अक्टूबर 2023 को लिंक की जाएगी ....
ReplyDeletehttp://halchalwith5links.blogspot.in पर आप सादर आमंत्रित हैं, ज़रूर आइएगा... धन्यवाद!
!
बहुत ही सुन्दर हृदय स्पर्शी रचना
ReplyDeleteयहाँ कोई बात पूरी होती नहीं, सदा अधूरी ही रहती है हर बात, सुंदर रचना !
ReplyDeleteवाह! पुरुषोत्तम जी ,बहुत खूब! सही कहा आपनें ...कुछ बातें अधूरी ही रह जाती हैं
ReplyDeleteसुन्दर
ReplyDeleteबहुत सुंदर रचना
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