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Tuesday, 29 August 2023

फरमाईश

दरिया, इक ठहरा सा मैं,
चंचल हो, 
उतने ही तुम!

है इक, चुप सा पसरा,
झंकृत हो उठता, वो सारा पल गुजरा,
सन्नाटों से, अब कैसी फरमाईश,
शेष कहां, कोई गुंजाइश!

समय, कोई गुजरा सा मैं,
विह्वल हो,
उतने ही तुम!

उठती, अन्तर्नाद कभी,
मुखरित हो उठते, गूंगे फरियाद सभी,
कर उठते, वे भी इक फरमाईश,
क्षण से, रण की गुंजाइश!

बादल, इक गुजरा सा मैं,
अरमां कई,
भीगे-भीगे तुम!

गुजरुंगा, इक चुप सा,
हठात्, उभरता, ज्युं अंधेरा घुप सा,
रहने दो, अधूरी इक फरमाईश,
उभरने दो, इक गुंजाइश!

इक अंत हूं, गुजरा सा मैं,
पंथ प्रखर,
उतने ही तुम!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
  (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Thursday, 9 September 2021

टूटते किनारे

दो ही कदम, तो, तुम चले थे संग,
पर, कितने चंचल से, थे हम,
और, चुप से तुम!

जैसे, रुक सी रही हो, इक नदी,
चीख कर, खामोश सी हो, इक सदी,
ठहर सा रहा हो, वक्त का दरिया,
गहराता सा, एक संशय,
इक-इक पल, लिए कितने आशय,
पर, संग, बड़े बेखबर से हम,
और, गुम से तुम!
 
दो ही कदम, तो, तुम चले थे संग,
पर, कितने चंचल से, थे हम..

जैसे, खुद में छुपी इक कहानी,
साँसों में उलझी, अल्हर सी रवानी,
वक्त, बह चला हो, वक्त से परे,
टूटते से, वो दो किनारे,
छूटते, निर्दयी पलों के, वो सहारे,
पर, कितने, अन्जान थे हम,
और, चुप से तुम!

दो ही कदम, तो, तुम चले थे संग,
पर, कितने चंचल से, थे हम..

अब, वही, यादों के अवशेष हैं,
संचित हो चले, जो वो पल शेष हैं,
बहा ले चला, वक्त का दरिया,
ना जाने, तुझको कहाँ,
नजरों से ओझल, है वो कारवाँ,
पर, उन्ही ख़ामोशियों में हम,
और, संग हो तुम!

दो ही कदम, तो, तुम चले थे संग,
पर, कितने चंचल से, थे हम,
और, चुप से तुम!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
   (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Sunday, 11 July 2021

प्रतीक्षा

युग बीता, न बीती इक प्रतीक्षा.....

निःसंकोच, अनवरत, बहा वक्त का दरिया,
पलों के दायरे, होते रहे विस्तृत!
समेटे इक आरजू, बांधे तेरी ही जुस्तजू,
रहूँ कब तक, मैं प्रतीक्षारत!

हो जाने दो, पलों को, कुछ और संकुचित,
ये विस्तार, क्यूँ हो और विस्तृत!
हो चुका आहत, बह चुका वक्त का रक्त,
रहूँ कब तक, मैं प्रतीक्षारत!

कब तक जिए, घायल सी, ये जिजीविषा!
वियावान सी, हो चली हर दिशा,
झांक कर गगन से, पूछता वो ध्रुव तारा,
रहूँ कब तक, मैं प्रतीक्षारत!

जलती रही आँच इक, सुलगती रही आग,
लकड़ियाँ जलीं, बन चली राख,
पड़ी हवनकुंड में, कह रही जिजीविषा,
रहूँ कब तक, मैं प्रतीक्षारत!

युग बीता, न बीती इक प्रतीक्षा.....

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
   (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Tuesday, 14 April 2020

एक टुकड़ा

हजारों, गुजरते हुए पलों से,
एक टुकड़ा पल,
चाहा था,
मैंने,
आसमां नहीं,
एक टुकड़ा बादल!

अनभिज्ञ, था मैं कितना,
कब, ठहरा है बादल! कब, ठहरा है पल!
दरिया है, बहता है, कल-कल,
निर्बाध! निरंतर...
होता, आँखों से ओझल!

बस, ठहरा था, इक मैं ही,
और सामने, खुला नीलाभ सा, आसमां,
वियावान सा, इक नीला जंगल,
अगाध! अनंतर...
गहराता, शून्य सा आँचल!

निरंकुश, था वो कितना,
दे गईं, स्मृतियाँ! कर गईं, कुछ बोझिल!
हिस्से के, मेरे ही, वो कुछ पल,
संबाध! निरंतर...
बिखरे-बिखरे, वो बादल!

हजारों, गुजरते हुए पलों से,
एक टुकड़ा पल,
चाहा था,
मैंने,
आसमां नहीं,
एक टुकड़ा बादल!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा
  (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Monday, 23 December 2019

वर्ष पुराना

 
क्या कहूँ, किसकी राह तकूँ?
पृष्ठ पलटता, गुजर चुका है वर्ष पुराना,
रच कर, इक अलग पृष्ठभूमि,
निर्मित कर, गुजरा सा इक जमाना,
बीत चला, वो वर्ष पुराना!

बात करूँ, या यूँ खामोश रहूँ?
दरिया था, चुपचाप उसे था बह जाना,
ओढ़ी थी, उसने भी खामोशी,
बंदिशों में, मुश्किल था बंध जाना,
बीत चला, यूँ  वर्ष पुराना!

क्या कहूँ, किसकी बात करूँ?
वो क्षण था, हर पल था ढ़लते जाना,
डूबते हर क्षण, साँसें थी रूँधी,
मुश्किल था, हर वो क्षण भूलाना,
बीत चला, जो वर्ष पुराना!

रंज सहूँ, या यूँ रंजिशों में रहूँ?
मन कहता, असहज सा है उसे भुलाना,
अब तक रुका, मैं वहीं कहीं,
कैसे भूल जाऊँ, वो संगीत सुहाना,
बीत चला, जो वर्ष पुराना!

थाम लूँ, हाथों में ये जाम लूँ,
दिल कहता, फिर आएगा वो जमाना,
रची थी, उसने ही ये पृष्ठभूमि,
वो जानता है, पृष्ठों में ढ़ल जाना,
बीत चला, जो वर्ष पुराना!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा
  (सर्वाधिकार सुरक्षित)
नववर्ष 2020 की शुभकामनाओं सहित

Monday, 24 December 2018

क्षण बह चला

क्षण!
क्षणिक था!
कण था,
इस दरिया संग,
बह चला!

मलय,
समीरन,
इक
झौंका था!
कब आया?
जाने कब गया?
हरियल,
नादान था,
चंचल पंछी था,
जमीं पर
कब उतरा!
ठहरा,
कुछ पल,
रुका!
कब, उड़ चला!

क्षण!
क्षणिक था!
कण था,
इस दरिया संग,
बह चला!

तरसते,
सूखे से पत्ते,
सूखी,
डाली सी काया,
फिर
शिशिर आया,
रस लाया,
लाया, क्या लाया?
प्रतीक्षा के क्षण,
रहे विफल,
प्राण
गँवाया
जीवन से त्राण
कहाँ पाया,
मंद
समीर संग,
बस, उड़ चला!

क्षण!
क्षणिक था!
कण था,
इस दरिया संग,
बह चला!

वो आए,
मन को भरमाए,
चले गये!
मन के रिश्ते,
नाते,
सब तोड़ गये,
अबाध,
अनकट सूनापन,
सूना क्षण,
इक आह विरल,
छोड़ गये,
इस रिक्तता के,
प्रवाह संग,
साँसों में,
उनके ही,
अनुराग संग,
निष्ठुर सा,
समय,
बस, बह चला!

क्षण!
क्षणिक था!
कण था,
इस दरिया संग,
बह चला!