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Tuesday, 24 November 2020

एहसान (27 वीं वर्षगांठ:)

एहसान बड़े हैं तेरे, इस जीवन पर मेरे,
आभारी हूँ, बस इतना, कह दूँ कैसे!
तुझको, बेगाना, इक पल में कर दूँ कैसे!

सजल दो नैन जले, अनबुझ, मेरी डेहरी पर,
जैसे रैन ढ़ले, सजग प्रहरी संग,
ऐसा चैन बसेरा!
कोई छीने, मुझसे क्या मेरा!
निश्चिंति का ऐसा घेरा,
पाता मैं कैसे!
बस, आभारी हूँ मैं, कह दूँ कैसे?

हर क्षण, तेरे जीवन का, मेरे ही हिस्से आया,
शायद मैं ही, कुछ ना दे पाया!
देता भी क्या? 
शेष भला, अब मेरा है क्या!
पर, आभारी हूँ मैं...
कह दूँ कैसे!
पराया, इक पल में, कर दूँ कैसे?

अपने हो तुम, सपने जीवन के बुनते हो तुम,
सूने पल में, रंग कई भरते हो,
यूँ, था मैं तन्हा!
अकेला, मैं करता भी क्या?
फीके रंगों से जीवन...
र॔गता मैं कैसे!
बस, आभारी हूँ मैं, कह दूँ कैसे?

एहसान बड़े हैं तेरे, इस जीवन पर मेरे,
आभारी हूँ, बस इतना, कह दूँ कैसे!
तुझको, गैरों में, इक पल में रख दूँ कैसे!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
  (सर्वाधिकार सुरक्षित)
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अपनी शादी की 27 वीं वर्षगांठ (24.11.2020) पर पत्नी को सप्रेम समर्पित ...

Friday, 20 November 2020

अभिभूत - 27 साल

नित, खुद होकर नत-मस्तक,
मुझ पत्थर को, पावस में परिणत कर,
अभिभूत कर गए तुम!

जितना भी जाना, तुझको कम ही जाना,
बस, फूलों सा, था तुझको मुरझाना,
नित शीष चढ़े, पाँव तक फिसले,
पाँव तले, गए नित कुचले,
फिर भी, हौले से, यूँ मुस्काकर,
वशीभूत कर गए तुम!

नित, खुद होकर नत-मस्तक,
मुझ पत्थर को, पावस में परिणत कर,
अभिभूत कर गए तुम!

चली इक अंजानी पथ, डगमग सी नैय्या,
तब पुरजोर चली थी, इक पुरवैय्या,
किस ओर कहाँ, हम बह निकले,
हाँथों में, मेरा ही हाथ लिए,
उमंग कई, आँचल में भर कर,
द्रवीभूत कर गए तुम!

नित, खुद होकर नत-मस्तक,
मुझ पत्थर को, पावस में परिणत कर,
अभिभूत कर गए तुम!

इक मैं था, अनमस्क, बेपरवा अल्हड़ सा,
बे-दिल, बे-खबर, बेजान, पत्थर सा,
जाने कैसे, पल में, सदियों गुजरे,
हम तो, बस यूँ ही थे ठहरे,
पलकों की, छाँव घनेरी देकर,
परिभूत कर गए तुम!

नित, खुद होकर नत-मस्तक,
मुझ पत्थर को, पावस में परिणत कर,
अभिभूत कर गए तुम!

नित समक्ष सवेरा, अंत क्यूँकर होता मेरा,
ढ़ला, रोज ही, तम सा, तमस अंधेरा,
क्षितिज के, खिल आने से पहले,
चिड़ियों के, गाने से पहले,
रुण-झुण, पायल की भर कर,
जड़ीभूत कर गए तुम!

नित, खुद होकर नत-मस्तक,
मुझ पत्थर को, पावस में परिणत कर,
अभिभूत कर गए तुम!
- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
  (सर्वाधिकार सुरक्षित)
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24 नवम्बर, 2020: जब हम द्व्य 27 साल पूरा कर रहे होंगे। यह एक अनुभूति, अभिभूत किए जा रही है मुझे। हुए हम दो से चार, रचा इक छोटा सा संसार। 
संक्षिप्त, एक लघु जीवन-रचना, आशीष की अपेक्षाओं सहित, अपने पाठकों के लिए......

Sunday, 24 November 2019

मौसम 26वाँ

हो तुम, तो है, वही ऋतु, वही मौसम...

तुम, जैसे, गुनगुनी सी हो कोई धूप,
मोहिनी सी, हो इक रूप,
तुम्हें, रुक-रुक कर, छू लेती हैं पवन,
ठंढ़ी आँहें, भर लेती है चमन,
ठहर जाते हैं, ये ऋतुओं के कदम,
रुक जाते है, यहीं पर हम!

हो तुम, तो है, वही ऋतु, वही मौसम...

कब ढ़ला ये दिन, कब ढली ये रातें,
गई जाने, कितनी बरसातें,
गुजरे संग, बातों में कितने पलक्षिण,
बीते युग, धड़कन गिन-गिन,
हो पतझड़, या छाया हो बसन्त,
संग इक रंग, लगे मौसम!

हो तुम, तो है, वही ऋतु, वही मौसम...

ठहरी हो नदी, ठंढ़ी हो छाँव कोई,
शीतल हो, ठहराव कोई,
क्यूँ न रुक जाए, इक पल ये पथिक,
क्यूँ न कर ले, थोड़ा आराम,
क्यूँ ढ़ले पल-पल, फिर ये ऋतु,
क्यूँ ना, ठहरे ये मौसम?

हो तुम, तो है, वही ऋतु, वही मौसम...

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा
   (सर्वाधिकार सुरक्षित)
अपनी शादी कीं 26वीं वर्षगाँठ (यथा 24 नवम्बर 2019) पर, श्रीमति जी को समर्पित ...वही मौसम!

Saturday, 24 November 2018

25 वर्ष: संग मद्धम-मद्धम

साल दर साल......
यूँ बीत रहा मद्धम-मद्धम,
दो मन, दो धड़कन,
इक संग, रहते हैं इक आंगण....

दो विश्वास, चले परस्पर!
संग, 25 वर्षों तक, इक पथ पर,
विश्वास कहाँ होता खुद पर,
अचम्भित करता सफर,
चल रहा, संग-संग मद्धम-मद्धम.....

दो मन, दो धड़कन,
इक संग, रहते हैं इक आंगण....

दो युग बीते, सदियाँ बीती!
दो दीप जले, कितनी ही रतियाँ बीती,
इस आंगण, हर बतियाँ बीती,
उम्र की, संझिया बीती,
हर क्षण, संग-संग मद्धम-मद्धम.....

दो मन, दो धड़कन,
इक संग, रहते हैं इक आंगण....

फिक्र किसे, ये उम्र ढ़ली!
ढ़लती रातों में, है जब हमराह कोई,
आँखों-आँखो में, हर रात ढ़ली,
बढती उम्र, के सौगात,
बाँट चले, संग-संग मद्धम-मद्धम.....

दो मन, दो धड़कन,
इक संग, रहते हैं इक आंगण....

मना-मनौवल, रास-विहार!
रूठे पल में, पल-पल इक मनुहार,
जीते दोनो, इक दूजे से हार,
प्यारा सा, ये व्यापार,
बढ़ रहा, संग-संग मद्धम-मद्धम.....

दो मन, दो धड़कन,
इक संग, रहते हैं इक आंगण...

हो आरूढ़, रजत रथ पर!
हुए अग्रसर, इक नवीन सफर पर,
प्रदीप्त कामना, के पथ पर,
साँसों का, ये दीपक,
जल रहा, संग-संग मद्धम-मद्धम.....

साल दर साल......
यूँ बीत रहा मद्धम-मद्धम,
दो मन, दो धड़कन,
इक संग, रहते हैं इक आंगण....

++++++++++++++++++++++++++++++++++++
साल दर साल......
यूँ बीत रहा मद्धम-मद्धम,
दो मन, दो धड़कन,
इक संग, रहते हैं इक आंगण....
दो विश्वास, चले परस्पर!
संग, 25 वर्षों तक, इक पथ पर,
विश्वास कहाँ होता खुद पर,
अचम्भित करता सफर,
चल रहा, संग-संग मद्धम-मद्धम.....

दो मन, दो धड़कन,
इक संग, रहते हैं इक आंगण....
दो युग बीते, सदियाँ बीती!
दो दीप जले, कितनी ही रतियाँ बीती,
इस आंगण, हर बतियाँ बीती,
उम्र की, संझिया बीती,
हर क्षण, संग-संग मद्धम-मद्धम.....

दो मन, दो धड़कन,
इक संग, रहते हैं इक आंगण....

फिक्र किसे, ये उम्र ढ़ली!
ढ़लती रातों में, है जब हमराह कोई,
आँखों-आँखो में, हर रात ढ़ली,
बढती उम्र, के सौगात,
बाँट चले, संग-संग मद्धम-मद्धम.....

दो मन, दो धड़कन,
इक संग, रहते हैं इक आंगण....
मना-मनौवल, रास-विहार!
रूठे पल में, पल-पल इक मनुहार,
जीते दोनो, इक दूजे से हार,
प्यारा सा, ये व्यापार,
बढ़ रहा, संग-संग मद्धम-मद्धम.....

दो मन, दो धड़कन,
इक संग, रहते हैं इक आंगण....
हो आरूढ़, रजत रथ पर!
हुए अग्रसर, इक नवीन सफर पर,
प्रदीप्त कामना, के पथ पर,
साँसों का, ये दीपक,
जल रहा, संग-संग मद्धम-मद्धम.....
साल दर साल......
यूँ बीत रहा मद्धम-मद्धम,
दो मन, दो धड़कन,
इक संग, रहते हैं इक आंगण....