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Sunday, 1 January 2023

चेतना

जागो तुम, किसी की चेतना में,
सो जाना फिर,
खो जाना,
उसी की वेदना में!

यूं, आसां कहां, जगह पाना!
चेतना में, किसी की सदा रह जाना,
मन अचेतन,
न जाने, देखे कौन सा दर्पण!
कब कहां, करे, खुद को अर्पण!
किसी की चेतना मे!

यूं वेदना की तपती धरा पर,
सिमट कर, धूप सेकती है, चेतना!
सिसक कर,
सन्ताप में, दम तोड़ती कब!
मन भटकता, धूंध के पार, तब,
किसी की चेतना मे!

सो लो तुम, किसी की वेदना में,
जाग लेना फिर,
खो जाना,
उसी की चेतना में!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
  (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Saturday, 3 July 2021

मन भरा-भरा

मन, क्यूँ भरा-भरा सा है...
गीत, सावन ने, अभी तो, गाया जरा सा है!

यकीं था कि, पाषाण है, ये मन मेरा!
सह जाएगा, ये चोट सारा,
झेल जाएगा, व्यथा का हर अंगारा,
लेकिन, व्यथा की एक आहट,
पर ये भर्राया सा है!

मन, क्यूँ भरा-भरा सा है...
गीत, सावन ने, अभी तो, गाया जरा सा है!

भरम था कि, अथाह है ये मन मेरा!
जल, पी जाएगा ये खारा,
लील जाएगा, ये गमों का फव्वारा,
लेकिन, बादल की गर्जनाओं,
पर ये थर्राया सा है!

मन, क्यूँ भरा-भरा सा है...
गीत, सावन ने, अभी तो, गाया जरा सा है!

गिरी, इक बूँद, टूटा भरम ये सारा!
छूटा, मन पे यकीं हमारा,
लबा-लब सी भरी, मन की धरा,
बेवश, खड़ा हूँ किनारों पर,
मन, चरमराया सा है!

मन, क्यूँ भरा-भरा सा है...
गीत, सावन ने, अभी तो, गाया जरा सा है!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
   (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Saturday, 12 December 2020

पलों के यूकेलिप्टस

नहीं, कुछ भी नहीं!
तुम, न हो तो, कहीं कुछ भी नहीं!

हाँ, बीत जाते हैं जो, साथ होते नहीं,
पर वो पल, बीत पाते हैं कहाँ!
सजर ही आते हैं, कहीं, मन की धरा पर,
पलों के, विशाल यूकेलिप्टस!
लपेटे, सूखे से छाले,
फटे पुराने!

नया, कुछ भी नहीं....

बीत जाते हैं युग, वक्त बीतता नहीं,
कुछ, वक्त के परे, रीतता नहीं!
अकेले ही भीगता, पलों का यूकेलिप्टस,
कहीं शून्य में, सर को उठाए!
लपेटे, भीगे से छाले,
फटे पुराने!

नया, कुछ भी नहीं....

हाँ, पुराने वो पल, पुरानी सी बातें,
गुजरे से कल, रुहानी वो रातें!
उभर ही आते हैं, कहीं, मन की धरा पर,
लह-लहाते, वो यूकेलिप्टस!
लपेटे, रूखे से छाले,
फटे पुराने!

और, कुछ भी नहीं!
तुम, न हो तो, कहीं कुछ भी नहीं!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
   (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Sunday, 16 February 2020

अवधान

टूटा ना अवधान,
उस, काल कोठरी में,
कैद हो चला, एक दिन और!
बिन व्यवधान!

और एक दिन....

धारा है अवधान,
मौन धरा नें, 
पल, अनगिनत बह चला,
अनवरत, रात ढ़ली, दिवस ढ़ला,
हुआ, सांझ का अवसान,
बिन व्यवधान!

और एक दिन....

टूटा ना अवधान,
कालचक्र का,
कहीं सृजन, कहीं संहार,
कहीं लूटकर, किसी का श्रृंगार,
वक्त, हो चला अन्तर्धान,
बिन व्यवधान!

और एक दिन....

कैसा ये अवधान,
वही है धरा,
बदला, बस रूप जरा,
छाँव कहीं, कहीं बस धूप भरा,
क्षण-क्षण, हैं अ-समान,
बिन व्यवधान!

और एक दिन....

टूटा ना अवधान,
उस, काल कोठरी में,
कैद हो चला, एक दिन और!
बिन व्यवधान!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
 (सर्वाधिकार सुरक्षित)
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अवधान का अर्थ:
1. मन का योग । चित्त का लगाव । मनोयोग ।
2. चित की वृत्ति का निरोध करके उसे एक ओर लगाना । समाधि । 
3. ध्यान । सावधानी । चौकसी ।

Monday, 10 September 2018

बरसते घन

थमती ही नहीं, रिमझिम बारिश की बूँदें.....

ये घन, रोज ही भर ले आती हैं बूँदें,
भटकती है हर गली, गुजरता हूँ जिधर मैं,
भीगोती है रोज ही, ढूंढकर मुझे...

थमती ही नहीं, रिमझिम बारिश की बूँदें.....

थमती ही नहीं, बूँदों से लदी ये घन,
बरसकर टटोलती है, रोज ही ये मेरा मन,
पूछती है कुछ भी, रोककर मुझे...

थमती ही नहीं, रिमझिम बारिश की बूँदें.....

जोड़ गई इक रिश्ता, मुझसे ये घन,
कभी ये न बरसे, तो बरसता है मेरा मन,
तरपाती है कभी, यूँ छेड़कर मुझे...

थमती ही नहीं, रिमझिम बारिश की बूँदें.....

ये घन, निःसंकोच भिगोती है मुझे,
निःसंकोच मैं भी, कुछ कह देता हूँ इन्हें,
ये रोकती नही, कुछ कहने से मुझे...

थमती ही नहीं, रिमझिम बारिश की बूँदें.....

यूँ निःसंकोच, मिलती है रोज मुझे,
तोहफे बूँदों के, रोज ही दे जाती है मुझे,
भीगना तुम भी, भिगोए जो ये तुझे...

थमती ही नहीं, रिमझिम बारिश की बूँदें.....

निःस्वार्थ हैं कितने, स्नेह के ये घन,
सर्वस्व देकर, हर जाती है धरा का तम,
बरस जाती हैं, अरमानों के ये बूँदें....

थमती ही नही, रिमझिम बारिश की बूँदें.....

Tuesday, 9 February 2016

रूप लावण्य

रूप लावण्य चंद क्षणों का छंद,
धरा का लावण्य व्यक्त स्वच्छंद,
धरा सी सुंदर रूप धरो हर क्षण,
व्यक्त करो खुद को तुम स्वच्छंद।

विस्तृत धरा रूप लावण्य मनोहर,
व्यक्तित्व उदार अति-सुंदर प्रखर,
स्वच्छंदता आरूढ़ सुंदर पंखों पर,
लावण्य के आवर्त ये मधुर निरंतर।

व्यक्तित्व इक पहलु लावण्य का,
प्रखर करो तुम छंद व्यक्तित्व का,
धरा सी निखरे व्यक्तित्व स्वच्छंद,
रूप लावण्य निखरेगा उस क्षण।

Friday, 5 February 2016

मैं मगन घन-व्योम प्रेम मे!

मैं मगन घटा के घन-वयोम प्रेम मे हरपल!

बादलों का नैसर्गिक धरा प्रेम,
आश्वस्त अन्तर्धान मैं मादकता मे घन की,
मुझको विश्वास उसकी चंचलता में,
चपल रहकर हर पल अविरल,
छाँव ठंढ़क की देता धरा को कम से कम दो पल!
मूक संसृति बादलों की हरते मन।

मैं मगन घटा के घन-वयोम प्रेम मे हरपल!

बादलों का गूँजित सृष्टि प्रेम,
गूँजते हैं कान मेरे जब-जब गूँचते हैं घन,
सृष्टि को विश्वास उसकी झंकृत गूँज मे,
आच्छादित घनन घनघोर अतिघन,
वृष्टि कर जल प्लावित करते धरा को कम से कम!
घनघोर गर्जन बादलों की हरते मन।

मैं मगन घटा के घन-वयोम प्रेम मे हरपल!

बादलों का आलोकित व्योम प्रेम,
धधकते हैं प्राण मेरे जब कड़कते हैं घन,
व्योम को विश्वास उसकी तड़ित वेदना में,
रह रहकर सिहर उठते घन उसपल,
जलकर मौन संताप दूर करते व्योम का कम से कम!
तड़प जलन बादलों की हरते मन।

मैं मगन घटा के घन-वयोम प्रेम मे हरपल!

Saturday, 23 January 2016

बादल की वेदना

गर्जनों की भीषण हुंकार,
है प्रदर्शन बादलों की वेदना का,
परस्पर उलझते बादलों की मौन वेदना,
कौन समझ पाया है इस जग में।

घनघोर बादलों की आँसूवृष्टि,
धो डालती धरा का दामन हर साल,
आँसू है शायद ये किसी ग्लानि के!
कड़क बिजली ज्यूँ चीख पीड़ा की।

तपती धरा की जल राशि लेकर,
 स्वनिर्माण स्वयं की करता,
मौन धरा की तपिस देख फिर आँसू बरसाता,
पाषाण हृदय क्या समझेगा जग में।

सागर की वेदना

तेज लहरों की भीषण हाहाकार, 
है वेदना का प्रकटीकरण सागर का,
मौन वेदना की भाषा का हार,
कौन समझ पाया है इस जग में।

लहरें चूमती सागर तट को बार बार,
पोछ जाती इनके दामन हर बार,
करजोड़ विनती कर जैसे पाँव पकड़ती,
पश्चाताप किस भूल का करती?

शायद निचोड़ा है इसने धड़ा को स्वार्थवश,
सर्वस्व धरा का लेकर किया स्वनिर्माण,
पश्चाताप उसी भूल का करती?
पाषाण हृदय क्या समझेगा जग में।

मौन धरा की वेदना

चाक पर पिसती मौन धरा की वेदना,
पाषाण हृदय क्या समझेगा जग में।

लहरों की तेज हाहाकार, 
है वेदना का प्रकटीकरण सागर का,
मौन वेदना की भाषा का हार,
पाषाण हृदय क्या समझेगा जग में।

गर्जनों की भीषण हुंकार,
है प्रदर्शन बादलों की वेदना का,
परस्पर उलझते बादलों की वेदना,
पाषाण हृदय क्या समझेगा जग में।

लहरें चूमती सागर तट को बार बार,
पोछ जाती इनके दामन हर बार,
पश्चाताप किसी भूल का करती?
पाषाण हृदय क्या समझेगा जग में।

घनघोर बादलों की आँसूवृष्टि,
धो डालती धरा का दामन हर साल,
आँसू है शायद ये किसी ग्लानि के!
पाषाण हृदय क्या समझेगा जग में।

विशाल हृदय धरा का,
खुद को निचोर सर्वस्व सागर को देता,
तपाकर खुद को रचना बादलों की करता,
चाक पर पिसती मौन धरा की वेदना,
पाषाण हृदय क्या समझेगा जग में।