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Tuesday, 5 January 2016

चिर प्रेयसी, अनन्त-प्रणयिनी


तुम मेरी चिर प्रेयसी,
तुम मेरी अनन्त-प्रणयिनी।

काल सीमा से परे हमारा प्रणय,
चिर प्रेयसी तुम जन्म-जन्न्मातर से,
मेरी कल्पनाओं में बहती निर्बाध प्रवाह सी,
इस जीवन-वृत्त के पुनर्जन्म की स्मृति सी,
विस्तृत अन्तर्दृष्टि पर मोह आवरण जैसी।

तुम मेरी चिर प्रेयसी,
तुम मेरी अनन्त-प्रणयिनी।

तुम अप्राप्य निधि जीवन वृत्त की,
तुम अतृप्त तृष्णा जन्म-जन्मान्तर की,
लुप्त हो जाती है जो आँखों में आकर,
क्या अपूर्ण तृष्णा की तृप्ति कभी हो पाएगी?
क्या तृष्णा-तृप्ति में समाहित हो पाएँगी?

तुम मेरी चिर प्रेयसी,
तुम मेरी अनन्त-प्रणयिनी।

तृष्णा और तृप्ति

तृष्णा और तृप्ति का मिलन,
शायद क्या होगा इस जीवन,
तृष्णा में ही इतना घना जीवन,
चाह नई तृष्णा की हर क्षण।

जन्म-जन्मान्तर की तृष्णा,
क्या कभी हो पाएगी पूर्ण,
हर जन्म फिर नई एक तृष्णा,
चाह तृप्ति की सदा अपूर्ण।