आज, जरा विचलित है मन....
बिन छूए, कोई छू गया मेरा अन्तर्मन!
या ये है, अन्तर्मन की प्रतिस्पर्धा!
यूँ लगता है, जैसे!
शायद, अछूता ही था,
अब तक मैं!
जबकि, कितनी बार,
यूँ, छूकर गुजरी थी मुझको,
ख्यालों की आहट!
बदलते मौसम की मर्माहट,
ये ठंढ़क, ये गर्माहट,
बारिश की बूँदें!
यूँ, भींगा था तन!
पर, रीता ना अन्तर्मन!
अछूता सा,
कैसा है, ये विचलन!
कैसी है, ये करुण पुकार!
किसकी है आहट?
यूँ अन्तर्मन क्यूँ है मर्माहत?
क्यूँ देती नही राहत!
बारिश की बूँदें!
क्यूँ रहता, बेमानी!
भीगी, पलकों का पानी,
प्यासा सा!
रेतीला, इक मरुदेश!
और, विहँसता नागफनी!
पलता इक द्वन्द!
पल-पल, सुलगती गर्माहट,
इक चिल-चिलाहट,
विचलन, मन की घबराहट,
क्या, बुझाएंगी प्यास?
बारिश की बूँदें!
आज, जरा विचलित है मन....
बिन छूए, कोई छू गया मेरा अन्तर्मन!
या ये है, अन्तर्मन की प्रतिस्पर्धा!
- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा
(सर्वाधिकार सुरक्षित)
ReplyDeleteयूँ, भींगा था तन!
पर, रीता ना अन्तर्मन!
अछूता सा,
कैसा है, ये विचलन!
कैसी है, ये करुण पुकार!
किसकी है आहट?
यूँ अन्तर्मन क्यूँ है मर्माहत?
क्यूँ देती नही राहत!
बारिश की बूँदें!..खूबसूरत पंक्तियाँ..दर्द भरे एहसास को रेखांकित करती सुन्दर कृति..
शुक्रिया आदरणीया जिज्ञासा जी।
Deleteबिन छूए, कोई छू गया मेरा अन्तर्मन!
ReplyDeleteबहुत सुंदर और रूहानी प्रेम के एहसास से भरी भावपूर्ण रचना पुरुषोत्तम जी | विचलित मन की दशा को पूर्णरूपेण अभिव्यक्त करती रचना के लिए आपको हार्दिक बधाई और शुभकामनाएं|
आदरणीया रेणु जी, आपकी प्रतिक्रिया मे भी विलक्षणता भरी होती है। जब भी आपकी प्रतिक्रिया पाता हूँ, गौरवान्वित हो उठता हूँ। शुभकामनाओं सहित अभिवादन व आभार।
Deleteआपकी लिखी रचना "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" आज रविवार 10 जनवरी 2021 को साझा की गई है.... "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!
ReplyDeleteशुभ संध्या,,,आभार।
Deleteमेरी रचना के अंश को आपने अपनी प्रस्तुति का शीर्षक बना कर मेरा मान बढाया है, आभारी हूँ।
गम्भीर चिंतन
ReplyDeleteसादर...
बहुत-बहुत धन्यवाद दी।
Deleteसुन्दर सृजन।
ReplyDeleteबहुत-बहुत धन्यवाद आदरणीय जोशी जी।
DeleteThanks great blog ppost
ReplyDeleteMany a thanks ....
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