Showing posts with label धुंधला. Show all posts
Showing posts with label धुंधला. Show all posts

Wednesday 8 July 2020

तुम न बदले

धुंधले हुए, स्वप्न बहुतेरे,
धुंधलाए,
नयनों के घेरे,
धुंधला-धुंधला, हर मौसम,
जागा इक, चेतन मन!
मौन अपनापन,
वो ही,
सपनों के घेरे!

धूमिल, प्रतिबिम्बों के घेरे,
उलझाए,
उलझी सी रेखाएं,
बदलते से एहसासों के डेरे,
अल्हड़, वो ही मन,
तेरा अपनापन,
तेरे ही,
ख्यालों के घेरे!

बदली छवि, तुम न बदले,
तुम ही भाए,
अश्रुसिक्त हो आए,
ज्यूँ सावन, घिर-घिर आए,
भिगोए, ये तन-मन,
वो ही छुअन,
वो ही,
अंगारों के घेरे!

अंतर्मन, सोई मौन चेतना,
जग आए,
दिखलाए मुक्त छवि,
लिखता जाए, स्तब्ध कवि,
करे शब्द समर्पण,
संजोए ये मन,
तेरे ही,
रेखाओं के घेरे!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा
  (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Saturday 21 March 2020

बिन तुम्हारे

सो गए, अरमान सारे, 
दिन-रात हारे,
बिन तुम्हारे!

अधूरी , मन की बातें, 
किसको सुनाते,
कह गए, खुद आप से ही,
बिन तुम्हारे!

झकोरे, ठंढ़े पवन के,
रुक से गए हैं,
छू गई, इक तपती अगन, 
बिन तुम्हारे!

सुबह के, रंग धुंधले,
शाम धुंधली,
धुँधले हुए, अब रात सारे,
बिन तुम्हारे!

जग पड़ी, टीस सी,
पीड़ पगली,
इक कसक सी, उठ रही,
बिन तुम्हारे!

चुभ गई, ये रौशनी,
ये चाँदनी,
सताने लगी, ये रात भर,
बिन तुम्हारे!

पवन के शोर, फैले,
हर ओर,
सनन-सन, हवाएँ चली,
बिन तुम्हारे!

पल वो, जाते नहीं,
ठहरे हुए,
जज्ब हैं, जज्बात सारे,
बिन तुम्हारे!

रंग, तुम ही ले गए, 
रहने लगे,
मेरे सपने , बेरंग सारे,
बिन तुम्हारे!

सो गए, अरमान सारे, 
दिन-रात हारे,
बिन तुम्हारे!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
  (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Thursday 19 March 2020

धुंधलाहट

हैं कहीं, कोहरे सी जमीं?
या फिर, धुंधलाने लगा है जरा सा!
पारदर्शी सा, ये शीशा!

कुछ भी, पहले सा नहीं!
पटल वही, दृश्य वही, साँसें हैं वही!
कुछ, नया भी तो नहीं!

शायद, घुल रहा हो भ्रम?
भ्रमित हो मन, डरा हो अन्तःकरण!
दिशाएँ, हो रही हो नम!

कहीं, बारिश भी तो नहीं!
तपिश है, जलन है, गर्माहट है वही!
फिर क्यूँ, नमीं सी जमीं!

चुप होने लगी, हैं तस्वीरें!
ख़ामोश होने लगी हैं, सारी तकरीरें!
मिटने लगी हैं ये लकीरें!

भटकने लगे, हैं ये कदम!
हलक तक, आकर रुकी है जान ये!
अटक सी, गई ये साँसें!

है अपारदर्शी, ये व्यापार!
मनुहार, चल रहा शीशे के आर पार!
धुआँ सा, उठता गुबार!

हैं कहीं, कोहरे सी जमीं?
या फिर, धुंधलाने लगा है जरा सा!
पारदर्शी सा, ये शीशा!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
  (सर्वाधिकार सुरक्षित)