धुंधला-धुंधला, हर मौसम,
जागा इक, चेतन मन!
मौन अपनापन,
वो ही,
सपनों के घेरे!
धूमिल, प्रतिबिम्बों के घेरे,
उलझाए,
उलझी सी रेखाएं,
बदलते से एहसासों के डेरे,
अल्हड़, वो ही मन,
तेरा अपनापन,
तेरे ही,
ख्यालों के घेरे!
बदली छवि, तुम न बदले,
तुम ही भाए,
अश्रुसिक्त हो आए,
ज्यूँ सावन, घिर-घिर आए,
भिगोए, ये तन-मन,
वो ही छुअन,
वो ही,
अंगारों के घेरे!
अंतर्मन, सोई मौन चेतना,
जग आए,
दिखलाए मुक्त छवि,
लिखता जाए, स्तब्ध कवि,
करे शब्द समर्पण,
संजोए ये मन,
तेरे ही,
रेखाओं के घेरे!
- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा
(सर्वाधिकार सुरक्षित)
जागा इक, चेतन मन!
मौन अपनापन,
वो ही,
सपनों के घेरे!
धूमिल, प्रतिबिम्बों के घेरे,
उलझाए,
उलझी सी रेखाएं,
बदलते से एहसासों के डेरे,
अल्हड़, वो ही मन,
तेरा अपनापन,
तेरे ही,
ख्यालों के घेरे!
बदली छवि, तुम न बदले,
तुम ही भाए,
अश्रुसिक्त हो आए,
ज्यूँ सावन, घिर-घिर आए,
भिगोए, ये तन-मन,
वो ही छुअन,
वो ही,
अंगारों के घेरे!
अंतर्मन, सोई मौन चेतना,
जग आए,
दिखलाए मुक्त छवि,
लिखता जाए, स्तब्ध कवि,
करे शब्द समर्पण,
संजोए ये मन,
तेरे ही,
रेखाओं के घेरे!
- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा
(सर्वाधिकार सुरक्षित)
आपकी लिखी रचना "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" आज बुधवार 08 जुलाई 2020 को साझा की गई है.... "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!
ReplyDeleteसादर आभार आदरणीय दी।
Deleteअगला विषय प्रश्न है
ReplyDeleteकृपया तलाशें
सादर
मेरी रचना- "प्रश्न से परहेज"
Deletehttp://purushottamjeevankalash.blogspot.com/2018/02/blog-post_27.html?m=1
आपकी इस प्रस्तुति का लिंक चर्चा मंच पर चर्चा - 3743 में दिया जाएगा। आपकी उपस्थिति मंच की शोभा बढ़ाएगी|
ReplyDeleteधन्यवाद
दिलबागसिंह विर्क
सादर आभार आदरणीय विर्क जी।
Deleteबेहतरीन रचना आदरणीय
ReplyDeleteहृदयतल से आभार आदरणीया अनुराधा जी।
Deleteबहुत सुन्दर भावपूर्ण अभिव्यक्ति ... हर छंद मन क भाव लिए ...
ReplyDeleteबहुत-बहुत धन्यवाद आदरणीय नसवा जी। आभारी हूँ।
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ReplyDeleteधूमिल, प्रतिबिम्बों के घेरे,
उलझाए,
उलझी सी रेखाएं,
बदलते से एहसासों के बेहतरीन काव्य
बहुत-बहुत धन्यवाद आदरणीय । आभारी हूँ।
Deleteवाह!लाजवाब सृजन ..प्रत्येक बंद निशब्द करता .
ReplyDeleteसादर
बहुत-बहुत धन्यवाद आदरणीया सुनीता जी। आभारी हूँ। बहुत दिनों बाद पुनः स्वागत है आपका।
Deleteबदली छवि, तुम न बदले,
ReplyDeleteतुम ही भाए,
अश्रुसिक्त हो आए,
ज्यूँ सावन, घिर-घिर आए,
भिगोए, ये तन-मन,
वो ही छुअन,
वो ही,
अंगारों के घेरे!
आदरणीय पुरुषोत्तम जी , सच कहूं ये रचना बहुत ही मार्मिक और भावपूर्ण लगी मुझे | किसी को ये कहना कि - तुम ना बदले - एक बहुत बड़ी कृतज्ञता और स्नेहिल भाव है | साथ ही विशवास का द्योतक भी है | प्रेम की गहन अनुभूति को उजागर करती रचना के लिए बधाई और शुभकामनाएं | सादर -
शब्द कम होंगे आपकी प्रतिक्रिया पर आभार व्यक्त करने हेतु। भावों को चुनकर समेटना भी संभवन हो। बहुत-बहुत धन्यवाद आदरणीया।
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