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Friday, 7 January 2022

मौसम

कहां थे तुम और गुम कहां हम थे,
विषम कितने, ये मौसम थे!

झांक कर गुम हुई, इन खिड़कियों से रौशनी,
लौट कर, दोबारा फिर न आईं,
दिन यूं ढ़ला, ज्यूं हों, रातें इक सुरंग सी,
धूप थी, पर उजाले कितने कम थे,
विषम कितने, ये मौसम थे!

कहां थे तुम और गुम कहां हम थे,
विषम कितने, ये मौसम थे!

छूकर किनारों को, गुजर जाती थी धार इक,
यकायक, रुख ही, बदल चुकी,
बेसहारे, निहारे दूर अब भी वो किनारे,
शबनम भरे, किनारे कितने नम थे,
विषम कितने, ये मौसम थे!

कहां थे तुम और गुम कहां हम थे,
विषम कितने, ये मौसम थे!

टीस बनकर, चुभती रही, सर्द सी इक पवन,
पले, एहसास कहां अब गर्म से,
उड़ा कर ले चली, कहीं वो ही पुरवाई,
उस ओर, जिधर तुम थे न हम थे,
विषम कितने, ये मौसम थे!

कहां थे तुम और गुम कहां हम थे,
विषम कितने, ये मौसम थे!

बदले हैं मौसम, बदले तराने, बदली सी धुन,
गुम हुई, पायलों की वो रुनझुन,
सुर बिन, कैसे खिले मन के ये वीराने,
इस धुन में, संगीत कितने कम थे,
विषम कितने, ये मौसम थे!

कहां थे तुम और गुम कहां हम थे,
विषम कितने, ये मौसम थे!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
   (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Saturday, 7 August 2021

वही पुरवाई

भरमाती, संग चली आई, वही पुरवाई!

कितनी ठंढ़ी सी, छुवन,
जागे, लाख चुभन,
वही रातें, वही सपने, फिर लिए आई,
भरमाए पुरवाई!

बांधे, अपनेपन के धागे,
संग, पीछे ही भागे,
वही खुश्बू, वही यादें, लिए चली आई,
भरमाए पुरवाई!

छोड़, सारे लाज शरम,
तोड़, मन के भरम, 
राहें, पीपल सी वो बाहें, भरे अंगड़ाई,
भरमाए पुरवाई!

उड़ा ले जाए, दूर कहाँ,
संग, है कौन यहाँ, 
धूँधला, वो जहाँ, हो जाए न, रुसवाई,
भरमाए पुरवाई!

कर दे, कभी नैन सजल,
यादों के, वो पल,
विह्वल कर जाए, वो धुन, वो शहनाई,
भरमाए पुरवाई!

चुन लाता, बिखरे मोती,
वो आशा-ज्योति,
चंचल, बहकी सी पवन, बड़ी सौदाई,
भरमाए पुरवाई!

भरमाती, संग चली आई, वही पुरवाई!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
   (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Friday, 3 January 2020

दुआ (बुजुर्ग)

दुआ उन्हीं की, ले आएगी पुरवाई!

हमारे बुजुर्ग, तन्हाई में खुद को समेटे, इन्तजार में पथराई आँखों  और टूटती साँसों के अन्तिम क्षणों में भी, अपने बच्चों के लिए लबों पर दुआ की कामना ही रखते हैं।

जीवन के बेशकीमती वक्त हमारे देख-रेख में गुजारते हुए वे भूल जाते हैं कि उनकी अगली पीढ़ी के पास, उन्हीं के लिए वक्त नहीं है। अपने रिक्त हाथों में दुआओं की असंख्य लकीरे लिए, वे हमारा ही इन्तजार करते बैठे होते हैं । ये युवा पीढ़ी पर निर्भर करता है कि वो इन बेशकीमती दुआओं को समेट कर अपना दामन भरे या रिक्तताओं से भरा एक भविष्य की वो भी बाट जोहें।

शायद एक पुरवाई बहे, इसी उम्मीद में,  प्रस्तुत है चंद पंक्तियाँ, एक रचना के स्वरूप में ....

दुआ उन्हीं की, ले आएगी पुरवाई!

जीर्ण हुए, उन हाथों में न थी ताकत,
दीर्घ रिक्तता थी, बची न थी जीने की चाहत,
पर उन आँखों में थी, नेक सी रहमत,
सर पर, हाथ उसी ने थी फिराई!

दुआ उन्हीं की, ले आएगी पुरवाई!

लम्हे शेष कहाँ थे, उनकी जीवन के,
जाते हर लम्हे, दे जाते इक दस्तक मृत्यु के,
शब्द-शब्द थे, उनकी बस करुणा के,
उस करुणा में, जैसे थी तरुणाई!

दुआ उन्हीं की, ले आएगी पुरवाई!

उस अन्तिम क्षण, पलकें थी पथराई,
वो दूर कहीं थे, जिन पर थी ममता बरसाई,
मन विह्वल थे, वो आँखें थी भर आई,
अन्त समय, होते कितने दुखदाई!

दुआ उन्हीं की, ले आएगी पुरवाई!

संग कहाँ है कोई, जीवन के उस पार,
मंद मलय बहती है, बस जीवन के इस पार,
बह चली ये मंद समीर, आज उस पार,
मन पर मलयनील, यह कैसी छाई!

दुआ उन्हीं की, ले आएगी पुरवाई!

आह न उनकी लेना, बस परवाह जरा उनकी कर लेना। कल ये बुजुर्ग, शायद, कभी हम में ही न लौट आएं, और कटु एक अनुभव, ऐसा ही, जीवन का ना दे जाएँ।

क्यूँ न, जीवन चढ़ते-चढ़ते, भविष्य की नई एक राह गढ़ते चलें । बुजुर्गों के हाथ उठे, तो बस एक खुशनुमा सा दुआ बनकर। दुआ उन्हीं की, ले आएगी पुरवाई!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा
   (सर्वाधिकार सुरक्षित)