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Saturday, 7 August 2021

वही पुरवाई

भरमाती, संग चली आई, वही पुरवाई!

कितनी ठंढ़ी सी, छुवन,
जागे, लाख चुभन,
वही रातें, वही सपने, फिर लिए आई,
भरमाए पुरवाई!

बांधे, अपनेपन के धागे,
संग, पीछे ही भागे,
वही खुश्बू, वही यादें, लिए चली आई,
भरमाए पुरवाई!

छोड़, सारे लाज शरम,
तोड़, मन के भरम, 
राहें, पीपल सी वो बाहें, भरे अंगड़ाई,
भरमाए पुरवाई!

उड़ा ले जाए, दूर कहाँ,
संग, है कौन यहाँ, 
धूँधला, वो जहाँ, हो जाए न, रुसवाई,
भरमाए पुरवाई!

कर दे, कभी नैन सजल,
यादों के, वो पल,
विह्वल कर जाए, वो धुन, वो शहनाई,
भरमाए पुरवाई!

चुन लाता, बिखरे मोती,
वो आशा-ज्योति,
चंचल, बहकी सी पवन, बड़ी सौदाई,
भरमाए पुरवाई!

भरमाती, संग चली आई, वही पुरवाई!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
   (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Friday, 3 August 2018

लिखता हूं अनुभव

निरंतर शब्दों मे पिरोता हूं अपने अनुभव....

मैं लिखता हूं, क्यूंकि महसूस करता हूं,
जागी है अब तक आत्मा मेरी,
भाव-विहीन नहीं, भाव-विह्वल हूं,
कठोर नहीं, हृदय कोमल हूं,
आ चुभते हैं जब, तीर संवेदनाओं के,
लहू बह जाते हैं शब्दों में ढ़लके,
लिख लेता हूं, यूं संजोता हूं अनुभव...

निरंतर शब्दों मे पिरोता हूं अपने अनुभव....

मैं लिखता हूं, जब विह्वल हो उठता हूं,
जागृत है अब तक इन्द्रियाँ मेरी,
सुनता हूं, अभिव्यक्त कर सकता हूं,
संजीदा हूं, संज्ञा शून्य नहीं मैं,
झकझोरती हैं, मुझे सुबह की किरणें,
ले आती हैं, सांझ कुछ सदाएं,
सुन लेता हूं, यूं बुन लेता हूं अनुभव...

निरंतर शब्दों मे पिरोता हूं अपने अनुभव....

Saturday, 18 June 2016

धीरज

ओ मेरे उर के विह्वल दुलार!
कहो, क्या है तुझमें इतना धीरज.........
कि यूँ ही तुम चलते रहो उम्र भर साथ,
बिन आशा, बिन आकांक्षा, बिन अभिलाषा,
रहो हाथों में बस गहे यूँ ही हाथ?

ओ मेरे उर के विह्वल दुलार!
तुम सब झूठा हो जाने दो कहा-सुना,
कहना-सुनना क्या बस देखो इक सपना,
छल जाने दो उर को बस, रहो निराश उदास,
रहो हाथों में बस गहे यूँ ही हाथ?

ओ मेरे उर के विह्वल दुलार!
अब उठे भी कहाँ से प्यार की बात,
असमंजस हों कदम-कदम पर उर में जब,
इस मन के एकाकी तारे को दो बस यूँ उछाल,
रहो हाथों में बस गहे यूँ ही हाथ?

ओ मेरे उर के विह्वल दुलार!
कहो, क्या है तुममें इतना धीरज.........

Friday, 25 March 2016

विह्वल भाव

भाव कितने ही प्रष्फुटित होते हर पल इस मन में...,!

कुछ भाव सरल भाषाविहीन, कुछ जटिल अंतहीन,
कुछ उद्वेलित घन जैसे व्यक्त अन्तःमानस में आसन्न,
कुछ हृदय में हरपल घुलते, कुछ अव्यक्त अन्त:स्थ मौन!

भाव पनपते भावनाओं से, भावना वातावरण से,
संग्यांहीन, संग्यांशून्य, निरापद भाव कुछ मेरे मन के,
मैं प्रेमी जीवन के हर शय का प्रेम ही दिखता हर मन में,

भिन्नता क्युँ भावों में इतनी मानव मन क्युँ विभिन्न,
रिक्तता तो है अंग जीवन का भाव क्युँ हुए दिशाविहीन,
कभी तैरती भावों मे विह्वलता कभी कभी ये मतिविहीन।

विह्वलता सुन्दरतम भाव मन की अभिव्यक्ति का,
माता हो जाती विह्वल पुत्र के निष्कपट भाव देखकर,
हृदय पुत्र का हो जाता विह्वल माँ की छलके नीर देखकर।

हृदय दुल्हन का विह्वल बाबुल का आँगन छोड़कर,
विदाई के क्षण नैन असंख्य विह्लल आँसूओं में डूबकर,
पत्थर हृदय पिता हो जाता विह्वल बेटी के आँसू देखकर।

भाव कितने ही प्रष्फुटित होते हर पल मन में...,!
कैद कर लेना चाहता विह्वल भावों को मैं "जीवन कलश" में.!

Sunday, 27 December 2015

यादों के नीर

नैनों से जो छलक पड़े हैं,
विह्वल होकर जो सिसक पड़े है,
हैं तेरी यादों के वो नीर।

भावप्रवण जो फफक पड़े है,
अधरों पर जो बरस पड़े हैं
है तेरी यादों के वो जंजीर।

इन भावों से है गहराता सागर,
चखा है जिनको इन अधरों ने,
ये हैं तेरी प्यास के अधीर।

नीर नहीं ये, हैं नीरव अमृत,
पीता जाऊँ मैं इसको जीवनभर,
है जीवन तेरी आस का पीर।

चखा है अमृत अधरों ने पर,
अब भी बाकी प्यास हमारी,
नैनों से अविरल बह जाने को,
विह्वल नीर ने फिर कर ली तैयारी।