Showing posts with label आग. Show all posts
Showing posts with label आग. Show all posts

Sunday, 5 September 2021

मझधार मध्य

करे मन, अजनबी सी कल्पना,
चाहे क्यूँ पतंगा, उसी आग में जलना!

रचे प्रपंच कोई, करे कोई षडयंत्र,
बुलाए पास कोई, पढ़कर मंत्र,
जगाए रात भर, जलाए आँच पर,
हर ले, सुधबुध, रखे बांध कर,
न चाहे, फिर भी, छूटना!

करे मन, अजनबी सी कल्पना,
चाहे क्यूँ पतंगा, उसी आग में जलना!

ये कैसा अर्पण, कैसा ये समर्पण,
ये कैसी चाहत, ये कैसा सुखन,
दहकती आग में, जले है इक तन,
सदियों, वाट जोहे कैसे विरहन,
न जाने, ये कैसी, साधना!

करे मन, अजनबी सी कल्पना,
चाहे क्यूँ पतंगा, उसी आग में जलना!

ढ़ूंढ़े मझधार मध्य, इक सुखसार,
बसाए, धार मध्य, कोई संसार,
भिगोए एहसास, धरे इक विश्वास,
रचे गीत, डूबती, हर इक साँस,
न छूटे, मन का ये अंगना!

करे मन, अजनबी सी कल्पना,
चाहे क्यूँ पतंगा, उसी आग में जलना!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
   (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Saturday, 6 February 2021

परिणति

धूमिल सांझ हो, या जगमग सी ज्योति!
जाने क्या हो, परिणति!
आहुति या पूर्णाहुति!
एक जिद है, तो जिए जाना है!
तपिश में, निखर जाना है!

इक यज्ञ सा जीवन, मांगती है आहुति!
हार कर, जो छोड़ बैठे!
तीर पर ही, रहे बैठे!
ये तो धार है, बस बहे जाना है!
डुबकियाँ ले, पार जाना है!

भूल जा, उन यादों को मत आहूत कर!
हो न जाए, सांझ दुष्कर!
राह, अपनी पकड़!
ठहराव ये, थोड़े ही ठिकाना है!
ये बंध सारे, तोड़ जाना है!

सुबह और शाम, ढूंढते ये अल्पविराम!
संघर्ष, स्वीकारते सहर्ष!
चलते, बिन विराम!
ये संसृति, खुद में ही तराना है!
राग ये ही, सीख जाना है!

गहन अंधेरी रात हो, या प्रदीप्त ज्योति!
जाने क्या हो, परिणति!
आहुति या पूर्णाहुति!
एक प्रण है, तो, पार पाना है!
अगन में, सँवर जाना है!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
   (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Wednesday, 26 February 2020

तंग गलियारे

माना, हम सब सह जाएंगे,
दंगों के विष, घूँट-घूँट हम पी जाएंगे,
आगजनी, गोलीबारी,
तन-बदन और सीनों पर, झेल जाएंगे,
लेकिन, मन की तंग गलियारों से,
आग की, उठती लपटें,
धू-धू, उठता धुआँ,
इन साँसों में, कैसे भर पाएंगे?

जलता मन, सुलगता बदन,
आघातों के, हर क्षण होते विस्फोट,
डगमगाता विश्वास,
बहती गर्म हवाएँ, सुलगते से ये होंठ,
जहरीली तकरीरें, टूटती तस्वीरें,
चुभते, बिखरे से काँच,
सने, खून से दामन,
इस मन को, कैसे जोड़ पाएंगे?

मन के, ये तंग से गलियारे,
नफ़रतों, साज़िशों की ऊँची दीवारें,
वैचारिक अंन्तर्द्वन्द,
अन्तर्विरोध व अन्तः प्रतिशोध के घेरे,
अवरुद्ध हो चली, वैचारिकताएं,
घिनौनी मानसिकताएं,
चूर-चूर, होते सपने,
इन नैनों में, कैसे बस पाएंगे?

इन, तंग गलियारों में ....
माना, हम सब सह जाएंगे!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
 (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Tuesday, 18 February 2020

चुप हो क्यूँ?

लो डुबकियाँ,
हो रहा बेजार, ये मझधार है!

जीवन, जिन्दगी में खो रहा कहीं,
मानव, आदमी में सो रहा कहीं, 
फर्क, भेड़िये और इन्सान में अब है कहाँ?
कहीं, श्मसान में गुम है ये जहां, 
बिलखती माँ, लुट चुकी है बेटियाँ, 
हैरान हूँ, अब तक हैवान जिन्दा हैं यहाँ!
अट्टहास करते हैं वो!
तुम चुप हो क्यूँ?

लो चुटकियाँ, 
हो रहा बेकार, नव-श्रृंगार है!

सत्य, कंदराओं में खोया है कहीं,
असत्य, यूँ प्रभावी होता नही!
फर्क, अंधेरों और उजालों में अब है कहाँ?
जंगलों में, दीप जलते हैं कहाँ,
सुलगती आग है, उमरता है धुआँ,
जिन्दा जान, तड़पते जल जाते हैं यहाँ!
तमाशा, देखते हैं वो!
तुम चुप हो क्यूँ?

लो फिरकियाँ, 
हो रहा बेजार, ये उपहार है!

भँवर, इन नदियों में उठते हैं यूँ ही,
लहर, समुन्दरों में यूँ डूबते नहीं,
फर्क, तेज अंधरो के, उठने से पड़ते कहाँ!
इक क्षण, झुक जाती हैं शाखें,
अगले ही क्षण, उठ खड़ी होती यहाँ,
निस्तेज होकर, गुजर जाती हैं आँधियां!
सम्हल ही जाते हैं वो!
तुम चुप हो क्यूँ?

लो डुबकियाँ,
हो रहा बेजार, ये मझधार है!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
  (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Sunday, 19 January 2020

यूँ बन्दगी में

यूँ बन्दगी में.....
जरा सा, सर झुका लेना, ऐ हवाओं,
गुजरना, जब मेरी गली से!

ऐ हवाओं! झूल जाती हैं पत्तियाँ,
शाखें, टूट जाते हैं यहाँ,
धूल, जम जाती हैं दरमियाँ,
बस, खता माफ करना,
भूल जाना, जफा,
याद रख लेना पता, सर झुका लेना!

यूँ बन्दगी में.....

ऐ हवाओं! जल न जाए चिंगारी,
बुझी है जो, आग सारी,
न टूट जाए, फिर ये खुमारी,
बस, जरा एहसास देना,
साँस, भर जाना, 
हौले से बह जाना, सर झुका लेना!

यूँ बन्दगी में.....

ऐ हवाओं! रुख ना तुम बदलना,
छुवन, ये सहेज रखना,
खल न जाए, कमी तुम्हारी,
बस, परवाह कर लेना,
प्रवाह, दे जाना,
ठहर जाना कभी, सर झुका लेना!

यूँ बन्दगी में.....
जरा सा, सर झुका लेना, ऐ हवाओं,
गुजरना, जब मेरी गली से!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा
  (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Saturday, 18 January 2020

जलते रहना, ऐ आग!

जलते रहना, ऐ आग!
इक सम्मोहन सा है, तेरी लपटों में,
गजब सा आकर्षण है,   
जलाते हो,
पर खींच लाते हो, ध्यान!

जलते रहना, ऐ आग!
जलाते हो, प्रतीक चिर जीवन के,
कर स्वयं में समाहित,
ले अंकपाश,
आखिरी देते हो, सम्मान!

जलते रहना, ऐ आग!
जब तक, राख उठे लपटों से तेरी,
धुआँ-धुआँ, हो ये शमां,
जलना यहाँ,
या तू बन जाना, श्मशान!

जलते रहना, ऐ आग!
----------------------------------------------------------
रूखा-सूखा पहाड़ कोई नहीं देखने जाता। लेकिन, पहाड़ से उतरते झरनों को देखकर मन बरबस ही खिचा चला आता है। पहाड़  पर चढ़कर मनोरम व मनोहारी दृश्य देखना ही मन को भाता है।

कहीं आग लगे या लगाया जाय, तो सब मुड़-मुड़कर देखते हैं । अलाव या चिता जले तो सभी इकट्ठे होकर तापते या देखते हैं ।

मुझे लगता है कि, जरूरी नहीं है कि शब्द ज्यादा लिखे जाएँ, परन्तु जरूरी है कि शब्द की आत्मा यानि अन्तर्निहित भाव लिखी जाय, जो कि पल भर को झकझोर दे अन्तर्मन को।

अत:, शब्दों के पहाड़ से, कलकल करता कोई झरना बहे, पल-पल रिसता कोई भाव झरे तो बात ही कुछ और है। शब्द जले और आग या धुआँ ना उठे तो यह जलना व्यर्थ है।
----------------------------------------------------------

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा
  (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Wednesday, 15 January 2020

वो भोर नहीं

कुम्हलाए सूरज में, वो भोर नहीं अब,
अंधेरी रातों का, छोर नहीं अब!
नमीं आ जमीं, या पिघल रहा वो सूरज,
खिली सुबह का, दौर नहीं अब!

झुकते पर्वत पे, बादल और नहीं अब,
उड़ते बादल के, ठौर नहीं अब!
लदी बूँदों से घन, जली वो मन ही मन,
करता क्यूँ कोई, गौर नहीं अब!

चहकते चिड़ियों में, वो शोर नहीं अब,
भौंरे कलियों पे, और नहीं अब!
बदली है फ़िजा, बदल चुका वो सूरज,
बहते झरनों का, शोर नहीं अब!

धधकता ही नहीं, क्या आग सीने में!
राख ही बचा, क्या अब जीने में!
धूल-धूसरित या मुर्छित हुआ वो सूरज,
अंधेरी रातों का, अंत नहीं अब!

खोया भोर कहीं, उन्ही अंधियारों में!
सूरज वो खोया, शायद तारों में,
लपटें नहीं उठती, अब उन अंगारों में, 
चम-चमाता वो, भोर नहीं अब!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
   (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Tuesday, 20 August 2019

चंद बातें

मंद सांसों में, बातें चंद कह दे!
तू आज, मुझसे कोई छंद ही कह दे!

चुप हो तुम, तो चुप है जहां!
फैली है जो खामोशियाँ!
पसरती क्यूँ रहे?
इक गूंज बनकर, क्यूँ न ढले?
चहक कर, हम इसे कह क्यूँ न दें?
चल पिरो दें गीत में इनको!
बातें चंद ही कह दे!

तू आज, मुझसे कोई छंद ही कह दे!

तू खोल दे लब, कर दे बयां!
दबी हैं जो चिंगारियाँ!
सुलगती, क्यूँ रहें?
इक आग बनकर, क्यूँ जले?
इक आह ठंढ़ी, इसे हम क्यूँ न दें?
बंद होठों पर, इसे रख दे!
बातें चंद ही कह दे!

तू आज, मुझसे कोई छंद ही कह दे!

चंद बातों से, जला ले शमां!
पसरी है जो विरानियाँ!
डसती क्यूँ रहे?
विरह की सांझ सी, क्यूँ ढले?
मंद सी रौशनी, इसे हम क्यूँ न दें?
चल हाथ में, हम हाथ लें!
बातें चंद ही कह दे!

तू आज, मुझसे कोई छंद ही कह दे!

मंद सांसों में, बातें चंद कह दे!
तू आज, मुझसे कोई छंद ही कह दे!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा

Wednesday, 1 June 2016

राख

दिल की हदों से गुजरी थी कभी जिन्दगी,
किस्से मोहब्बत के तमाम बाकी हैं,

चाहत के फूलों से सजा था कभी गुलशन,
जिन्दगी के अब कुछ निशान बाकी हैं,

उजड़ी है बस्तियाँ खत्म हो चुकी हैं कहानी,
चाहत के बस कुछ अल्फाज बाकी है,

मजार-ए-मीनार बनी इक अधूरे ईश्क की,
चाहत की मुकम्मल सी याद बाकी है,

अब अक्श है वो सामने जैसे लपटें हो आग की,
जलते हुए ईश्क की बस राख बाकी है।

Wednesday, 25 May 2016

जलती हुई चिंगारियाँ

मिट चुका है शायद, जल के वो आँशियाँ,
दिखते नहीं है अब वहाँ, जलते अनल के धुआँ,
उठ रहे है राख से अब, जलती हुई चिंगारियाँ,
जाने किस आग में, जला है वो आँशियाँ।

दो घड़ी सासों को वो, देता था जो शुकून,
वो शुकून अब नहीं, दो पल के वो आराम कहाँ,
मरीचिका सी लग रही, अब साँसों का ये सफर,
साँसों की आँधियों में, बिखरा है वो आँशियाँ ।

जल रहा ये शहर, क्या बचेगा वो आशियाँ,
आग खुद ही लगाई, अब बुझाए इसे कौन यहाँ,
अपने ही हाथों से हमने, उजाड़ा अपना ये चमन,
राख के ढ़ेर को ही अब, कह रहे हम आशियाँ।