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Sunday, 10 November 2019

बिटिया के नाम

बिटिया, तुम खूब बड़ी हो जाना!

जीवन के, इन राहों पर,
बाधाएं, आएंगी ही रह-रह कर,
भटकाएंगी ये मार्ग तुझे, हर पग पर,
विमुख, लक्ष्य से तुम न होना,
क्षण-भर, धीरज रखना,
विवेक, न खोना,
विचलित, तुम किंचित ना होना!

बिटिया, तुम खूब बड़ी हो जाना!

चका-चौंध, है ये पल-भर,
ये तो है, धुंधले से सायों का घर,
पर तेरा साया, संग रहता है दिन-भर,
समेटकर, सायों को रख लेना,
सन्मुख, सत्य के होना,
स्वयं को ना खोना,
धुंधलाते सायों सा, तुम ना होना!

बिटिया, तुम खूब बड़ी हो जाना!

बुद्धि तेरी, स्वयं है प्रखर,
ज्ञान तुझमें, भरा कूट-कूट कर,
पग खुद रखना, आलोकित राहों पर,
असफलताओं से, ना घबराना,
विपदाओं से, ना डरना,
तुम, हँसती रहना,
गिरना, संभलना, यूँ चलती रहना!

बिटिया, तुम खूब बड़ी हो जाना!

पिता हूँ मैं, हूँ तेरा रहबर,
पथ दिखलाऊंगा, हर-पग पर,
पर होगी, ईश्वर की भी तुझ पर नजर,
भरोसा, उस ईश्वर पर रखना,
कर्म-विमुख, ना होना,
आँखें, मूंद लेना,
कर्म के पथ पर, यूँ बढ़ती रहना!

बिटिया, तुम खूब बड़ी हो जाना!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा
(सर्वाधिकार सुरक्षित)

Saturday, 17 November 2018

दो प्रस्तावना

दो स्वरूप जीवन के, रचता है ईश्वर!

कामना के कई रंग देकर,
वो हँसता है ऊपर,
क्यूंकि, कल्पना से सर्वथा परे,
बिल्कुल अलग-अलग,
दो विपरीत कलाएँ, रचता है ईश्वर!

बसंत ही बसंत
या है पतझड़ ही पतझड़,
हरितिमा अनंत है
या है बंजर ही बंजर,
दो रूप जीवन के, रचता है ईश्वर!

चुप ही चुप,
या कंठ में स्वर ही स्वर,
है सुर-विहीन,
या है सुर के सातों स्वर,
दो धुन जीवन के, रचता है ईश्वर!

अभिलाषा मन में देकर,
वो हँसता है ऊपर,
क्यूँकि, चाहत से सर्वथा परे,
कथाएं अलग-अलग,
दो भिन्न प्रस्तावना, रखता है ईश्वर!

चुनने को मार्ग सही, कहता है ईश्वर!

Wednesday, 8 June 2016

प्रशस्त प्रखर मंजिल

क्षितिज को निहार तू, विस्तृत जरा आयाम कर,
विशाल सोंच को बना, मन की गगन का विस्तार कर,
प्रतिभा की चाँदनी से, आसमाँ में प्रकाश भर,
क्षितिज की आगोश में, मंजिल का तू विस्तार कर।

मंजिलों से आगे, कितने ही मुकाम हैं बाँकी,
अभी तो जिन्दगी के, यहाँ किस्से तमाम हैं बाँकी,
हसरतों के पंखों को, तू जरा फैला कर देख,
इन बादलों से उपर, अभी कई आसमाँ हैं बाँकी।

यह नहीं मंजिल तेरी, प्रहर है यह विराम की,
ठहर इक पल जरा, मंजिल प्रशस्त कर अपनेे मार्ग की,
कर्म की लाठी हाथों मे ले, निरस्त तू बाधाओं को कर,
दिखेगी तुझको राह नई, मंजिलें हो जाएंगी प्रखर।

विश्राम तो बस मौत है, गतिशील हैं राहें यहाँ,
मंजिलों से बेखबर, जीवन की अनगिनत चाहें यहाँ,
कुशाग्र प्रखर रौशनी में, राह तू खुद अपनी बना,
इन मंजिलों के आगे कहीं, तू छोड़ जा अपने निशां।