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Saturday, 24 April 2021

जीवट युगद्रष्टा

युगों-युगों, वो ही लड़ा!
ज्यूँ पीर, पर्वत सा, बन कर अड़ा,
चीर कर, धरती का सीना,
सीखा है उसने, जीवन जीना,
हारा कब, मानव,
जीवट बड़ा!

ढ़हते, घिसते, पिसते शिखर देखे,
बहते, उमरते, उफनते सागर देखे,
बवंडर, आईं और गईं,
सुनामियाँ, विभीषिक व्यथा लिख गईं,
जल-प्रलय, कहरी रुक गईं, 
महामारी, असह्य कथा ही कह गई,
कांधे, लाशों के बोझ धारे,
झेले, कहर सारे,
पर, हिम्मत कब वो हारे,
संततियों संग, युगों-युगों रहा डटा,
दंश, सह चुका, यह युगद्रष्टा,
मानव, जीवट बड़ा!

विपरीत, पवन कितनी!
घिस-घिस, पाषाण, हुई चिकनी,
संकल्प, हुई दृढ़ उतनी,
कई युग देखे, बनकर युगद्रष्टा,
खूब लड़ा, मानव,
जीवट बड़ा!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
  (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Friday, 27 December 2019

बेर और बैर

बोए थे हमने भी, बेर के बीज!
वृक्ष उगे, हरियाली छाई,
बाग भी, कुछ पल को इतराई,
खुश थे हम, बेर लगेंगे,
खट्टे-मीठे, कुछ हम भी चख लेंगे,
लेकिन, उसने पाले थे काँटे,
दामन में, उसके थे जितने,
सब, उसने बाँटे!

बेर ने, खूब निभाई मुझसे ही बैर!
चलो खैर, समझ ये आई,
न बोना था, ये बेर मुझे ऐ भाई,
कल को ये, दुख ही देंगे,
आते-जाते, बरबस पाँवों में चुभेंगे,
भर ही देंगे ये, राहों में काँटे,
दर्द, पड़ेंगे खुद ही सहने,
गर, उसने बाँटे!

फिर भी, रोप रहे वो थोक में बेर!
सबकी मति, गई है मारी,
फैल गई है, शायद ये महामारी,
बन कर रोग, बैर उगेंगे,
रिश्ते लहु-लुहान, ये काँटे कर देंगे,
बनेंगे, दुःख के कारण काँटे,
बैर मन के, बढ़ेंगे जितने,
विषैले, होंगे काँटे!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा
   (सर्वाधिकार सुरक्षित)