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Sunday, 4 July 2021

आशियाँ

यही चमन, बस यही आशियाँ मेरा,
यहीं सांझ, यहीं सवेरा!

भटक जाता हूँ, कभी...
उड़ जाता हूँ, मानव जनित, वनों में,
सघन जनों में, उन निर्जनों में,
है वहाँ, कौन मेरा?

यही चमन, बस यही आशियाँ मेरा,
यही सांझ, यहीं सवेरा!

यहाँ बुलाए, डाल-डाल,
पुकारे पात-पात, जगाए हर प्रभात,
स्नेहिल सी लगे, हर एक बात,
है यही, जहान मेरा!

यही चमन, बस यही आशियाँ मेरा,
यही सांझ, यहीं सवेरा!

सुखद कितनी, छुअन,
छू जाए मन को, बहती सी ये पवन, 
पाए प्राण, यहीं, निष्प्राण तन,
मेरे साँसों का ये डेरा!

यही चमन, बस यही आशियाँ मेरा,
यही सांझ, यहीं सवेरा!

डर है, आए न पतझड़,
पड़ न जाए, गिद्ध-मानव की नजर,
उजड़े हुए, मेरे, आशियाने पर,
अधूरा है अनुष्ठान मेरा!

यही चमन, बस यही आशियाँ मेरा,
यही सांझ, यहीं सवेरा!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
   (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Saturday, 24 April 2021

जीवट युगद्रष्टा

युगों-युगों, वो ही लड़ा!
ज्यूँ पीर, पर्वत सा, बन कर अड़ा,
चीर कर, धरती का सीना,
सीखा है उसने, जीवन जीना,
हारा कब, मानव,
जीवट बड़ा!

ढ़हते, घिसते, पिसते शिखर देखे,
बहते, उमरते, उफनते सागर देखे,
बवंडर, आईं और गईं,
सुनामियाँ, विभीषिक व्यथा लिख गईं,
जल-प्रलय, कहरी रुक गईं, 
महामारी, असह्य कथा ही कह गई,
कांधे, लाशों के बोझ धारे,
झेले, कहर सारे,
पर, हिम्मत कब वो हारे,
संततियों संग, युगों-युगों रहा डटा,
दंश, सह चुका, यह युगद्रष्टा,
मानव, जीवट बड़ा!

विपरीत, पवन कितनी!
घिस-घिस, पाषाण, हुई चिकनी,
संकल्प, हुई दृढ़ उतनी,
कई युग देखे, बनकर युगद्रष्टा,
खूब लड़ा, मानव,
जीवट बड़ा!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
  (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Tuesday, 20 April 2021

तृष्णा

परिंदा, मन का, पर खोले चाहे उड़ना,
रुके कहाँ, मानव की तृष्णा!

मानव की खातिर, कितना मुश्किल है खोना,
अपूरित ख़्वाहिशों का, जग उठना,
उस अनदेखे की, ख्वाहिशों संग सोना,
उनको भी, मन चाहे पा लेना,
निर्णय-अनिर्णय के, उन दोराहों पर, 
ले आती है तृष्णा!

परिंदा, मन का, पर खोले चाहे उड़ना,
रुके कहाँ, मानव की तृष्णा!

मन, पाए ना राहत, जग जाए जब ये चाहत,
अन्जाने ही, मन होता जाए आहत,
भ्रम की इक, किश्ती में, वो ढूंढे राहत,
जाने, पर स्वीकारे ना ये सत्य,
चाहत के, उस अनिर्णीत दोराहों पर, 
ले आती है तृष्णा!

परिंदा, मन का, पर खोले चाहे उड़ना,
रुके कहाँ, मानव की तृष्णा!

खो दे कुछ भी, उन अनिश्चितताओं के बदले,
पाना चाहे, उन इच्छाओं को पहले,
भले ही इच्छाओं को, इच्छाएं ही डस ले,
कैसी आशा, कैसा यह स्वप्न,
अंधियारे से, इक विस्तृत दोराहों पर,
ले आती है तृष्णा!

परिंदा, मन का, पर खोले चाहे उड़ना,
रुके कहाँ, मानव की तृष्णा!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
  (सर्वाधिकार सुरक्षित)
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इच्छा
1. कामना, चाह, ख्वाहिश; 2. रुचि।

इक्षा
1. नज़र; दृष्टि 2. देखने की क्रिया; दर्शन 3. विचारना; विवेचन करना; पर्यालोचन।

Saturday, 6 March 2021

तब मानव कहना

जग जाएगी जब, सुसुप्त चेतना,
उत्थान, उसी दिन होगा तेरा,
तब, खुद को तुम,
मानव कहना!

सृष्टि के, धरोहर तुम,
विधाता की, रचनाओं में, मनोहर तुम,
पर हो अधूरा, एक सोहर तुम,
जग जाएगी जब, सुप्त संवेदना,
विहान, उसी दिन होगा तेरा,
खुद को, तब तुम,
मानव कहना!

तुम्हीं में, परब्रम्ह रमे,
रमी, दशों दिशाओं की आशा तुझ में, 
अनंत रमी, इक यात्रा तुझ में,
हलाहल, जब तुम ये पी जाओगे,
कल्याण, उसी दिन होगा तेरा,
खुद को, तब तुम,
मानव कहना!

नर-नारायण तुम ही,
दीन-हीन के, जन-नायक हो तुम ही,
हो अंधियारों में, लौ तुम ही,
काँटे जीवन के, जब बुन जाओगे,
पहचान, उसी दिन होगा तेरा,
खुद को, तब तुम,
मानव कहना!

सर्वगुण, सम्पन्न तुम,
फिर भी, हर दुख के हो आसन्न तुम,
कहाँ रह सके, अक्षुण्ण तुम!
इन पीड़ाओं को, जब हर जाओगे,
उन्वान, उसी दिन होगा तेरा,
खुद को, तब तुम,
मानव कहना!

जग जाएगी जब, सुसुप्त चेतना,
उत्थान, उसी दिन होगा तेरा,
तब, खुद को तुम,
मानव कहना!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
   (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Tuesday, 9 February 2021

खोखली प्रगति

विध्वंस रचा हमने, यह नहीं कोई निर्माण!
आधार-विहीन प्रगति पर, ऐ मानव!
मत कर, तू अभिमान!

प्रलय, ले आई है, भविष्य की झांकी,
त्रिनेत्र, अभी खुला है हल्का सा,
महाप्रलय, बड़ी है बाकी!
प्रगति का, कैसा यह सोपान?
चित्कार, कर रही प्रकृति,
बैठे, हम अंजान!
यह पीड़ जरा, पहले तू पहचान,
अवशेषों के, इस पथ पर, ऐ मानव!
मत कर, तू अभिमान!

विध्वंस रचा हमने, यह नहीं कोई निर्माण!

तेरी ही संतति, कल हँसे न तुझ पर!
छींटे कसे न, पीढियाँ तुझ पर,
कर नवप्रयान की तैयारी,
दे संतति को, इक नवविहान!
फिर पुकारती है, प्रकृति,
बन मत, अंजान!
ये हरीतिमा, यूँ ना हो लहुलुहान,
रक्तिम सी इस प्रगति पर, ऐ मानव!
मत कर, तू अभिमान!

विध्वंस रचा हमने, यह नहीं कोई निर्माण!
आधार-विहीन प्रगति पर, ऐ मानव!
मत कर, तू अभिमान!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
   (सर्वाधिकार सुरक्षित)
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(दिनांक 07.02.2021 को उत्तराखंड में आई भीषण प्राकृतिक त्रासदी से प्रभावित)

Sunday, 6 December 2020

जीवट

यह मानव, जीवट बड़ा!
गिरता, हर-बार होता, उठ खड़ा,
जख्म, कितना भी हो हरा!
विघ्न, बाधाओं से, वो ना डरा,
समय से लड़ा, मानव,
जीवट बड़ा!

या विरुद्ध, बहे ये धारा!
हो, पवन विरुद्ध, दूर हो किनारा,
ना अनुकूल, कोई ईशारा!
प्रतिकूल, तूफानों से, वो लड़ा,
डरा कभी ना, मानव,
जीवट बड़ा!

आईं-गईं, प्रलय कितनी!
घिस-घिस, पाषाण, हुई चिकनी,
इक संकल्प, हुई दृढ़ उतनी,
कई युग देखे, बनकर युगद्रष्टा,
श्रृष्टि से लड़ा, मानव,
जीवट बड़ा!

युगों-युगों से, रहा खड़ा!
वो पीर, पर्वत सा, बन कर अड़ा,
चीर कर, धरती का सीना,
सीखा है उसने, जीवन जीना,
हारा है कब, मानव,
जीवट बड़ा!

जंग अभी, है यह जारी!
विपदाओं पर, है यह मानव भारी,
इक नए कूच की, है तैयारी,
अब, ब्रम्हांड विजय की है बारी,
ठहरा है कब, मानव,
जीवट बड़ा!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
   (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Tuesday, 1 December 2020

अलविदा 2020

तू तकता किसकी राह, ऐ अन्तिम माह!
तू जाए तो, ये साल बिसारूँ!
हाल सम्हालूँ, बिगरे हालात बना लूँ!

तेरे होने का ही तो, बस, इक रोना था!
संग होकर भी, तू, संग ना था!
करना ही क्या था, जब कोरोना था!

अपनी दामन के काँटे, सब तुमने बाँटे!
सपन सलोने, हम कैसे पाते!
अब कुछ बाकी है क्या, जाते-जाते!

निर्दयी सा होकर, जीवन से तूने खेला!
गुम था जैसे, जीवन का मेला!
सहमा-सहमा, खुशियों का हर वेला!

कह दो, कैसे भूलूँ, ऐ बीता साल, तुझे!
कैद रखूँ, तुझको पिंजड़े में!
या, तुझको आजाद करूँ, जेहन से!

लेकिन, तूने तो जैसे, छेड़ा इक रण है!
याद रहे, अन्तिम ये क्षण है!
जंग में तेरे आगे, भारी ये जीवन है।

कितनी ही बाधाएं, लांघी है मानव ने,
कितने प्रलय, देखे हैं इसने,
जिन्दा हैं फिर भी, आँखों में सपने!

तू तकता किसकी राह, ऐ अन्तिम माह!
तू जाए तो, ये साल बिसारूँ!
हाल सम्हालूँ, बिगरे हालात बना लूँ!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
   (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Sunday, 15 November 2020

गहरी रात

कितनी गहरी, ये रात!
दिवा-स्वप्न की, तू ना कर बात!

इक दीप जला है, घर-घर,
व्यापा फिर भी, इक घुप अंधियारा,
मानव, सपनों का मारा,
कितना बेचारा,
चकाचौंध, राहों से हारा,
शायद ले आए, इक नन्हा दीपक!
उम्मीदों की प्रभात!

कितनी गहरी, ये रात!
दिवा-स्वप्न की, तू ना कर बात!

कतरा-कतरा, ये लहू जला,
फिर कहीं, इक नन्हा सा दीप जला,
निर्मम, वो पवन झकोरा,
तिमिर गहराया,
व्याकुल, लौ कुम्हलाया,
मन अधीर, धारे कब तक ये धीर!
कितनी दूर प्रभात!

कितनी गहरी, ये रात!
दिवा-स्वप्न की, तू ना कर बात!

तम के ही हाथों, तमस बना,
इन अंधेरी राहों पर, इक हवस पला,
बुझ-बुझ, नन्हा दीप जला,
रातों का छला,
समक्ष, खड़ा पराजय,
बदले कब, इस जीवन का आशय!
अधूरी, अपनी बात!

कितनी गहरी, ये रात!
दिवा-स्वप्न की, तू ना कर बात!
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दीपावली का दीप, इक दिवा-स्वप्न दिखलाता  गया इस बार। कोरोना जैसी संक्रमण, विश्वव्यापी मंदी, विश्वयुद्ध की आशंका, सभ्यताओं से लड़ता मानव, मानव से ही डरता मानव आदि..... मन में पलती कितनी ही शंकाओं और इक उज्जवल सभ्यता की धूमिल होती आस के मध्य जलता, इक नन्हा दीप! इक छोटी सी लौ....गहरी सी ये रात.... और पलता इक दिवास्वप्न!
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- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
   (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Sunday, 9 August 2020

विध्वंस

यूँ भड़क उठती है, कहीं पीड़ बड़ी!
ज्यूँ, विध्वंस की है घड़ी!

शून्य चेतना, गगनभेदी सी गर्जना,
टूटती शिला-खंड सी, अन्तहीन वेदना,
चुप-चुप, मूक सी पर्वत खड़ी,
विध्वंस की, है ये घड़ी!

यूँ भड़क उठती है, कहीं पीड़ बड़ी!

हर तरफ, सन्नाटों की, इक आहट,
गुम हो चली, असह्य चीख-चिल्लाहट,
अनवरत, आँसूओं की है लड़ी!
विध्वंस की, है ये घड़ी!

यूँ भड़क उठती है, कहीं पीड़ बड़ी!

टूट कर, बिखरा है कहीं ये मानव,
मिल पाते नहीं, टूटे मन के वो अवयव,
इस मन की, किसको है पड़ी?
विध्वंस की, है ये घड़ी!

यूँ भड़क उठती है, कहीं पीड़ बड़ी!

करो शंखनाद, कर शिव को याद,
सृष्टिकर्ता, दु:खहर्ता से, कर फरियाद,
जटाएं, शिव की हैं बिखरी!
विध्वंस की, है ये घड़ी!

यूँ भड़क उठती है, कहीं पीड़ बड़ी!
ज्यूँ, विध्वंस की है घड़ी!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा
  (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Wednesday, 6 November 2019

दूर हैं वो

दूर हैं वो, पल भर को, जरा सा आज!
तो, खुल रहे हैं सारे राज!
वर्ना न था, मुझको ये भी पता,
कि, जिन्दा है, मुझमें भी एक एहसास!

थे वो, कल तक, कितने ही पास,
तो, न थी कहीं, कोई कमी,
बस, फिक्र में थी, कहीं वो ही ज़मीं!
रोज, थी अनर्गल सी हजारों बातें,
अनर्थक, बेफिक्र कई जिक्र,
निरर्थक सी, कभी लगती थी जो,
वही थी, अर्थपूर्ण सी सौगातें,
न थी, उनकी ललक,
हर शै, उनकी ही थी झलक,
झंकृत था, हर ईक कोना,
लगता था, जरूरी है कहीं एक घर होना!
खल गई है, जरा सी दूरी,
पर, है जरूरी, पल भर को ये भी दूरी,
ताकि, जगता रहे ये एहसास,
मानव न हो जाए पत्थर,
कोई दूरी, दरमियाँ, न जन्म ले उत्तरोत्तर!

दूर हैं वो, कुछ पल को, जरा सा आज!
तो, मैं मुझको ही, ढूंढ़ता हूँ आज !
वर्ना न था, मुझको ये भी पता,
कि, बचा है, मुझमें भी एक एहसास!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा

Saturday, 17 February 2018

विचार

पी-पीकर अमृत, यहाँ रोज मर रहा मानव,
विष के कुछ घूंट पीकर, क्या मर पाएगा मानव!

विषपान किया जब जीवन का,
तब ही जी पाया है मानव,
जीवन के ज्वाला में जल जल,
रोज ही जी रहा है मानव,
व्यथा के भार सहकर, क्या मर पाएगा मानव?

नित अनन्त राह चलते जाने को,
आराम समझ रहा मानव,
साँसों में धू-धू जलते जाने को,
जीना समझ रहा मानव,
अगम अथाह जीवन, क्या थाह पाएगा मानव?

क्षणिक सुख की दो घड़ियों को,
अमृत समझ रहा मानव,
इन दो दो घड़ियों को गिन गिन,
पल पल मर रहा मानव,
विष को अमृत प्याला, समझ पी रहा मानव?

इस ब्रम्हांड के लघु अंश है हम,
कब ब्रम्ह हुआ है मानव?
श्रष्टा की लघु कठपुतली हम,
ब्रम्ह में मिला है मानव!
ब्रम्हलीन होकर, सर्वथा अमर हुआ है मानव!

जिंदा सांसों के बोझ, लेकर चला रहा वो,
घूंट-घूंट गरल के पीकर, नीलकंठ बना है मानव!

Tuesday, 21 November 2017

हाँ मनुष्य हूँ

तुझे कितनी बार बताऊँ, हाँ मैं ही मनुष्य हूँ.....!

मैं सर्वाहारी, स्तनपयी, होमो सेपियन्स हूँ!
निएंडरथल नहीं, क्रोमैगनाॅन मानव हूँ,
अमूर्त्त सोचने, ऊर्ध्व चलने, बातों में सक्षम हूँ,
तात्विक प्रवीणताएँ सारी हैं मुझमे,
जैव विवर्तन में श्रेष्ठ हूँ, हाँ, हाँ, मैं मनुष्य हूँ....!

तुझे कितनी बार बताऊँ, हाँ मैं ही मनुष्य हूँ.....!

योनियों मे श्रेष्ठ हूँ, मानव हूँ, कुलश्रेष्ठ हूँ,
84 लाख योनियों में बस 4 लाख हूँ,
अब कैसे समझाऊँ, किस तरह तुझको बतलाऊँ,
ईश्वर की संकल्पना में, इक मैं भी हूँ,
हाँ, हाँ, हाँ, मैं झूठा हूँ, पर मै ही मनुष्य हूँ....!

तुझे कितनी बार बताऊँ, हाँ मैं ही मनुष्य हूँ.....!

सुन लो, कुछ अपने मन में तुम भी बुन लो,
योनि, कितनी इस धरती पर सुन लो,
9 लाख जलचर, 20 लाख वृक्ष, 11 लाख कीड़े,
10 लाख पक्षी, 30 लाख जंगली पशु,
बस 4 लाख मनुष्य, हाँ, हाँ, यही मनुष्य हूँ....!

तुझे कितनी बार बताऊँ, हाँ मैं ही मनुष्य हूँ.....!

पहनता हूँ कपड़े, सर्व विकसित जीव हूँ!
अपने अनुकूल परिवेश कर लेता हूँ,
कुछ खिलवाड़, कुछ दुश्वार प्रकृति से करता हूँ,
स्वार्थवश मस्तिष्क का दुरुपयोग भी,
हाँ, हाँ, हाँ, मैं दुष्ट हूँ, पर मै ही मनुष्य हूँ....!

तुझे कितनी बार बताऊँ, हाँ मैं ही मनुष्य हूँ.....!

Friday, 30 September 2016

कामनाएँ

अमुल्य मानव जन्म,
अनमोल रचना सृष्टि की,
पराकाष्ठा विवेक की,
अभिमान रचयिता के प्रकटीकरण की...

नन्हे कदमों से डग भरता,
अन्धी राहों पे चलता,
कोशिश में आकाश लांघने की,
भूला देता वजह खुद के इन्सान होने की...

कामनाओं से विवश,
ख्वाहिशों के वश में,
वासनाओं के ग्रास में,
खुद से पल पल दूर होता इन्सान....

आकांक्षाएं असीम,
इच्छाएँ नित अपरिमित,
अंतहीन अंधी सी चाहत,
रातोंरात सब हासिल कर लेने की जल्दी....

उद्वेलित अन्तःमन,
न पा सकने का भय,
कुछ छूट जाने का संशय,
आशंका सब छूटकर बिखर जाने की......

अवरुद्ध कल्पनाशीलता,
दम तोड़ती सृजनशीलता,
विवेकहीन सी हो चली मानसिकता,
वर्जनाओं में हर पल उलझता इन्सान.......

Tuesday, 5 July 2016

कुछ बोल दे बादल

ओ चिर काल से नभ पर विचरते बादल,
इस वसुधा की कण-कण को भिगोते बादल,
बोल दे, तू भी कुछ तो दे बोल बादल!

क्षार सा खारा जल तू पीता,
जिह्वा से तेरी बहता बस मीठा सा जल,
बूंदों में तेरी रचती गंगा-जमुना जल,
तू कितना प्यारा कितना अनमोल बादल,
बोल दे, तू भी कुछ तो दे बोल बादल!

गम की बोझ से है भरा पड़ा तू,
तम की घोर कालिमा मे ही लिपटा तू,
हर पल टूटा, हर पल बिखरा है तू,
तेरी धीरज से ना कोई अंजान बादल,
बोल दे, तू भी कुछ तो दे बोल बादल!

तम रचता मानव तन के अन्दर भी,
गम के काटें चुभते इस मानव तन को भी,
तेरा मीठा जल पीता क्षुधा मिटाने को भी,
मुख से लेकिन छूटते कड़वे ही बोल,
बोल दे, तू भी कुछ तो दे बोल बादल!

ओ राग अनुराग में लिप्त घुमरते बादल,
ओ मेरे हृदयाकाश पर उड़ते उन्मुक्त बादल,
बोल दे, तू भी कुछ तो दे बोल बादल!

Tuesday, 7 June 2016

निरापद कोई नहीं

ना, निरापद यहाँ इस जगत में कोई नही..........

वो पात्र प्रशंसा का भले ही हो या न हो,
उपलब्धियाँ भले ही जीवन की उनकी नगन्य हों,
मान्यताओं के विपरीत भले ही उसके कर्म हो,
भूखा है हर कोई अपनी प्रशंसा के लिए।

अन्तः अवलोकन से खुद ही वो क्षुब्ध हो,
आलोचना मन ही मन खुद अपनी ही करता हो,
निन्दा दिन रात अच्छों-अच्छों की करता हो,
जीता है हर कोई अपनी प्रशंसा के लिए।

ना, निरापद कोई नहीं है इस जगत में,
न तुम, न मैं, न वे जो कहलाते योगी शिखर के,
सबके पीछे बंधी है इच्छाएँ बस आसक्ति की,
मरता है हर कोई अपनी प्रशंसा के लिए।

प्रशंसा के आनन्द का छंद ऐसा ही तो है,
तारीफों की झूठी पुल पर वो चलता ही जाता है,
मन ही मन कमियों पर खुद की पछताता है,
निभाता वो मानव धर्म अपनी प्रशंसा के लिए।

ना, निरापद कोई नही यहाँ इस जगत में ..........

Tuesday, 19 April 2016

मानव बन सकें हम

अवधारणा ही रही यह मेरी कि मानव हैं हम,
विमुख भावनाओं से सर्वदा, क्या सच में मानव हैं हम?

कहीं तोड़ देते ये हृदय किसी का,
जाति-धर्म की संवेदनहीन सियासत में,
घृणा द्वेष दे जाते ये यहाँ  विरासत में,
स्व से उपर कहाँ उठ सके हम,
भावनाओं से परे लगे हैं, निज की स्वागत में।

विडम्बना जीवन की, कि कहलाते मानव हैं हम!
खून पी जाते हैं नरभक्षी बन, क्या सच में मानव हैं हम?

सद्भाव की सारी बातें लगती हैं तृष्णा सी,
जहर घुल चुके दिलों में सुखचैन हुए मृगतृष्णा सी,
काँटे बोए है खुद ही, काट रहे फसल घृणा की,
निज स्वार्थ से ऊपर कहाँ उठे हम,
बातें करते हैं हम विश्व और जगत कल्याण की।

प्रार्थना है मेरी ईश्वर से कि मानव तो बन सकें हम!
बीज भावना के बोएँ, जीवन के सम्मुख हो सकें हम!

Monday, 22 February 2016

चश्मा बदल के देखिए

चश्मा बदल के देखिए, है दुनियाँ अलग सी यहाँ,
हर शख्स निराला जगत में, हर शख्स अनोखा यहाँ,
कमी तुझको दिखेगी कहीं, शायद तुझ में ही यहाँ।

तू होगा ग्यानी बड़ा, गुरूर होगा खुदपर तुझको,
जग में भरे पड़े एक से एक नही मालूम तुझको,
चश्में की आड़ से निकलकर तू देख खुद को।

ग्यान, विद्या, धन, सम्मान, धीरज, सहनशीलता,
गुण हैं ये सभी उस विवेकशील शौम्य मानव के,
बदलते नही वो चश्मा तस्वीर नई देखने को।

Friday, 19 February 2016

आँधियाँ

आँधियाँ ये कैसी चली,
उड़ा ले गया जो आँशियाँ,
टूटकर चमन की शाख से,
डालियाँ बिखरी हुई यहाँ।

पेड़ पत्ते विहीन हुए,
उजड़ा पत्तों का आशियाँ,
बिखरकर मन की बस्ती से,
मानव निस्तेज पड़ा यहाँ।

रोक लो उन आँधियोे को,
नफरतें फैलाती जो यहाँ,
उजाड़कर इन बस्तियों को,
तोड़ते है फिर बागवाँ।

Monday, 15 February 2016

स्वर्ण सम बालूकण

हे मानव, इस जीवन मरु मे स्वर्णकण सम निखरो तुम।

स्वर्णकण सी चमक रही, बालूकण मरुस्थल के,
कड़कती तेज प्रखर धूप ज्वाला में जल जल के।
हे मानव, जीवनमरु में बालू सम निखरो जल के।

अकित हुई मरुस्थल स्वर्ण सी बालू की आभा में,
शोभित हो कर बिखर रहे स्वर्णकण चहु दिशा में,
हे मानव, स्वर्णकण सी बिखरो जीवन की राहों में।

उठी वेग से आंधी, धूलकण बिखरी स्वर्णकण बन,
बरस रही फेनिल स्वर्ण सी, उड़उड़ कर बालूकण।
हे मानव, तुम उड़ो मरूजीवन के स्वर्णकणों सम।

हे मानव, इस जीवन मरु मे स्वर्णकण सम निखरो तुम।