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Thursday, 23 August 2018

दिल धड़कता ही नहीं

धड़कता ही नहीं ये दिल आज-कल...

संवेदन शून्य, संज्ञाविहीन सा ये दिल,
उर कंठ इसे गर कोई लगाता,
झकझोर कर धड़कनों को जगाता,
घाव कुछ भाव से भर जाता,
ये दिल! शायद फिर धड़क जाता!

संवेदनाओं से सिर्फ इसे कैसे जगाएँ,
रिक्त है रक्त की सारी शिराएँ,
धमनियों में निर्वात सा माहौल है,
एकांत सा दिल में कोई आता,
ये दिल! शायद फिर धड़क जाता!

तीर दिल के सदियों कोई आया नहीं,
सदियों यहाँ बसंत छाया नहीं,
स्पंदन तनिक भी कभी पाया नहीं,
स्पर्श जरा भी कोई कर जाता,
ये दिल! शायद फिर धड़क जाता!

संज्ञा-शून्य सा अब हो चला है ये दिल,
विरानियों में ही रमा है ये दिल,
न गम है, न ही है अब इसे विषाद,
विषाद ही गर इसे मिल जाता,
ये दिल! शायद फिर धड़क जाता!

धड़कता ही नहीं ये दिल आज-कल...