Showing posts with label पाबन्दी. Show all posts
Showing posts with label पाबन्दी. Show all posts

Thursday, 22 September 2016

सरहदें

देखी हैं आज फिर से मैने लकीरें सरहदों के,
दर्द अन्जाना सा, न जाने क्यूँ उठने लगा है सीने में..

लकीरें पाबन्दियों के खींच दी थी किसी ने,
खो गई थी उन्मुक्तता मन की उमरते आकाश के,
हिस्सों में बट चुकी थी कल्पनाशीलता,
विवशता कुछ ऐसा करने की जो यथार्थ सो हो परे,
ऐसे में मन करे भी तो क्या? जिए या मरे?

उन्मुक्त मन, आकर खड़ा हो सरहदों पे जैसे,
कल्पना के चादर आरपार सरहदों के फैलाए तो कैसे,
रोक रही हैं राहें ये बेमेल सी विचारधारा,
भावप्रवणता हैं विवश खाने को सरहदों की ठोकरें,
ऐसे में मन करे भी तो क्या? जिए या मरे?

देखी हैं आज फिर से मैने लकीरें सरहदों के,
दर्द अन्जाना सा, न जाने क्यूँ उठने लगा है सीने में..