भावुक था मैं, या बेवजह थी मेरी भावना?
क्यूँ भावनाओं में बहता था मैं!
क्या बेवजह, यूँ बहका-बहका था मैं!
गम औरों के, चुभते थे मुझको,
गैरों के दु:ख में, दुखता था दिल मेरा,
गैरों के टूटे सपनों के टुकड़े,
चुभते थे, आकर मेरी आँखों में,
दे जाती थी, पल-पल यातना,
मुझको, मेरी ही भावना!
भावुक था मैं, या बेवजह थी मेरी भावना?
अन्तहीन, अन्तःपीड़ा के ये घेरे!
व्यथित करते थे, मुझको शाम-सवेरे!
कोई अर्थ समेटे, बेसुध ही लेटे,
उलझी सी आँखें, निरुत्तर सी पलकें,
जैसे, बुत सुन्दर सी कोई,
व्यथित मन के, हाथों थी खोई,
देती थी, पल-पल उलाहना,
मुझको, मेरी ही भावना!
भावुक था मैं, या बेवजह थी मेरी भावना?
रातें थी वो, या उजाले दिन के!
सौगातें थी वो, या थे मन के मनके!
फेरता था मन, रातों में जिनको,
छुपा रखता था, उजाले में दिन के,
निज मन को, निचोड़ कर,
अन्तःज्योत को, कहीं छोडकर,
पहनाती थी, दुख का गहना,
मुझको, मेरी ही भावना!
भावुक था मैं, या बेवजह थी मेरी भावना?
भावना-विहीन, जीवन हो कैसे?
मन तंत्रिकाएँ, संज्ञा-विहीन हो कैसे?
जाऊँ चेतनाओं, से परे कहाँ,
चेतना-शून्य, हो मन कैसे यहाँ?
मूँद लूँ, ये आँखें मैं कैसे,
रोक दूँ, झंकृत स्वर को मैं कैसे?
चाहती थी, मूक वधिर रखना,
मुझको, मेरी ही भावना!
भावुक था मैं, या बेवजह थी मेरी भावना?
- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा