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Saturday, 5 June 2021

मुझे क्या!

मुझे क्या!
भूला सा, हूँ मैं इक पल,
या, इक छल,
जैसे, ठोस लगे कोई जल!

खोया हूँ, तेरी ही विस्मृति के, आंगण में,
बंधा हूँ, नभ के भीगे से, उस घन में,
शायद, उभर जाऊँ सावन में!

मुझे क्या!
भूला सा, हूँ मैं इक पल,
या, इक छल,
जैसे, ठोस लगे कोई जल!
 
त्यक्त हूँ, विडंबनाओं के, फैले प्रांगण से,
मुक्त हूँ, भावनाओं के हर बंधन से,
शायद, व्यक्त कभी हो आऊँ!

मुझे क्या!
भूला सा, हूँ मैं इक पल,
या, इक छल,
जैसे, ठोस लगे कोई जल!

बीता कल हूँ, अक्स, तुम्हारा ही हैं इनमें,
इक छल हूँ, प्राण हमारा है जिनमें,
शायद, विस्मृति में रह जाऊँ!

मुझे क्या!
भूला सा, हूँ मैं इक पल,
या, इक छल,
जैसे, ठोस लगे कोई जल!

कल ना रहूँ, रह जाएंगी मेरी ये विस्मृति,
मैं ना कहूँ, कहने आएंगी विस्मृति,
शायद, याद कभी आ जाऊँ!

मुझे क्या!
भूला सा, हूँ मैं इक पल,
या, इक छल,
जैसे, ठोस लगे कोई जल!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
   (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Sunday, 24 January 2021

क्या रह सकोगे

उन्मुक्त कल्पनाओं के, स्वप्ननिल आकाश में,
क्या सदा, रह सकोगे तुम?

यूँ तो, विचरते हो, मुक्त कल्पनाओं में, 
रह लेते हो, इन बंद पलकों में,
पर, नीर बन, बह जाते हो,
कब ठहरते हो तुम!

उन्मुक्त कल्पनाओं के, स्वप्ननिल आकाश में,
क्या सदा, रह सकोगे तुम?

वश में कहाँ, ढ़ह सी जाती है कल्पना,
ये राहें, रोक ही लेती हैं वर्जना, 
इक चाह बन, रह जाते हो,
कब ठहरते हो तुम!

उन्मुक्त कल्पनाओं के, स्वप्ननिल आकाश में,
क्या सदा, रह सकोगे तुम?

यूँ ना होता, ये स्वप्निल आकाश सूना!
यूँ, जार-जार, न होती कल्पना,
इक गूंज बन, बह जाते हो,
कब ठहरते हो तुम!

उन्मुक्त कल्पनाओं के, स्वप्ननिल आकाश में,
क्या सदा, रह सकोगे तुम?

तुम कामना हो, या, बस इक भावना,
कोरी.. कल्पना हो, या साधना,
यूँ, भाव बन, बह जाते हो,
कब ठहरते हो तुम!

उन्मुक्त कल्पनाओं के, स्वप्ननिल आकाश में,
क्या सदा, रह सकोगे तुम?

ढूंढूं कहाँ, आकाश का कोई किनारा,
असंख्य तारों में, प्यारा सितारा,
तुम, दिन ढ़ले ढ़ल जाते हो,
कब ठहरते हो तुम!

उन्मुक्त कल्पनाओं के, स्वप्ननिल आकाश में,
क्या सदा, रह सकोगे तुम?

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
   (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Wednesday, 16 December 2020

आसां नहीँ

आसां नही, किसी के किस्सों में समा जाना,
रहूँ मैं जैसा! हूँ मगर आज का हिस्सा,
कल के किस्सों में, शायद रह जाऊँ बेगाना!
आसां नहीं, किसी और का हो जाना!

जीवंत, एक जीवन, सुसुप्त करोड़ों भावना,
कितना ही नितांत, उनका जाग जाना!
कितने थे विकल्प, पर न थी एक संभावना,
आसां नहीं, किसी और का हो जाना!

मन की किताबों पर, कोई लिख जाए कैसे!
मौन किस्सों का हिस्सा, बन जाए कैसे!
कपोल-कल्पित, सारगर्भित सा मेरा तराना,
आसां नहीं, किसी और का हो जाना!

ये हैं चह-चहाहटें, है ये ही कल की आहटें,
जीवंत संवेदनाओं की, मूक लिखावटें!
सुने ही कौन, ये अनगढ़ा, मूक सा फ़साना,
आसां नहीं, किसी और का हो जाना!

क्यूँ कोई बनाए, किसी को याद का हिस्सा,
क्यूँ कोई पढ़े, कोई अनगढ़ा सा किस्सा,
क्यूँ कोई संभाले, किसी और की संवेदना,
आसां नहीं, किसी और का हो जाना!

पहर दोपहर, बढ़ा, असंवेदनाओं का शहर,
मान कर अमृत, पान कर लेना ये जहर,
रख संभालना, जीवंत भावना व संवेदना,
आसां नहीं, किसी और का हो जाना!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
   (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Thursday, 19 September 2019

भावुक था मैं?

भावुक था मैं, या बेवजह थी मेरी भावना?

क्यूँ भावनाओं में बहता था मैं!
क्या बेवजह, यूँ बहका-बहका था मैं!
गम औरों के, चुभते थे मुझको,
गैरों के दु:ख में, दुखता था दिल मेरा,
गैरों के टूटे सपनों के टुकड़े,
चुभते थे, आकर मेरी आँखों में,
दे जाती थी, पल-पल यातना,
मुझको, मेरी ही भावना!

भावुक था मैं, या बेवजह थी मेरी भावना?

अन्तहीन, अन्तःपीड़ा के ये घेरे!
व्यथित करते थे, मुझको शाम-सवेरे!
कोई अर्थ समेटे, बेसुध ही लेटे,
उलझी सी आँखें, निरुत्तर सी पलकें,
जैसे, बुत सुन्दर सी कोई,
व्यथित मन के, हाथों थी खोई,
देती थी, पल-पल उलाहना,
मुझको, मेरी ही भावना!

भावुक था मैं, या बेवजह थी मेरी भावना?

रातें थी वो, या उजाले दिन के!
सौगातें थी वो, या थे मन के मनके!
फेरता था मन, रातों में जिनको,
छुपा रखता था, उजाले में दिन के,
निज मन को, निचोड़ कर,
अन्तःज्योत को, कहीं छोडकर,
पहनाती थी, दुख का गहना,
मुझको, मेरी ही भावना!

भावुक था मैं, या बेवजह थी मेरी भावना?

भावना-विहीन, जीवन हो कैसे?
मन तंत्रिकाएँ, संज्ञा-विहीन हो कैसे?
जाऊँ चेतनाओं, से परे कहाँ,
चेतना-शून्य, हो मन कैसे यहाँ?
मूँद लूँ, ये आँखें मैं कैसे,
रोक दूँ, झंकृत स्वर को मैं कैसे?
चाहती थी, मूक वधिर रखना,
मुझको, मेरी ही भावना!

भावुक था मैं, या बेवजह थी मेरी भावना?

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा

Wednesday, 8 August 2018

पड़ाव

स्नेहिल से कितने पड़ाव, और तय करेंगे हम?

चलो तय कर चुके, यह भी पड़ाव हम,
अब न जाने, ले जाए कहाँ ये बढते कदम!
भले ही ये फासले, कुछ हो चले हैं कम,
गंतव्य की ओर, जरा बढ़ चले हैं गम,
छोड़ आए है पीछे, यादों के वो घनेरे घन!

डोर रिश्तों के ये, खींचते हैं मेरे कदम,
यूं ही पड़ाव पर, रिश्तों में बंध गये थे हम!
भावनाओं में, थोड़े से बह गए थे हम,
तोड़ूंगा कैसे, ये भावनाओं के बंधन,
उम्र भर खीचेंगे, स्नेह के ये प्यारे से वन!

नये से पड़ाव पर, किसी से जुड़ेंगे हम,
अंजाने से शक्ल में, जब बेगाने से होंगे हम!
बरस ही जाएंगे, यादों के वो घनेरे घन,
कुछ पल भीग लेंगे, उन राहों पे हम,
मुड़-मुड़ के पीछे, यूं ही देखा करेंगे हम!

स्नेह के मोहक पड़ाव, कैसे छोड़ पाएंगे हम?

Wednesday, 28 March 2018

भावनाओं के भँवर

ये आकर फसे हैं हम कहाँ.......
भावनाओं के भँवर में,
यातनाओं के इस सफर में,
रात मे या दोपहर में....

खुश कितने ही थे हम यहाँ......
प्रस्फुटित हुई जब भावना,
मोह वही दे रही ये प्रताड़ना,
मन के इस खंडहर में.....

कलपते रहे जब तक यहाँ......
पुलकित हुई ये भावना,
सैलाब है अब आँसुओं का,
हम फसे उसी भँवर में......

यातनाओं का ये कहर यहाँ....
देती रहेगी ये भावना,
मुखरित होती है ये और भी,
विछोह हो जब सफर मे......

ये विदाई के तमाम पल यहाँ....
भावनाए होती है जवाँ,
तब विलखते हैं हम यातना में,
खुशियों के इसी शहर में....

ये आकर फसे हैं हम कहाँ.......
भावनाओं के भँवर में,
यातनाओं के इस सफर में,
रात मे या दोपहर में....

Tuesday, 27 March 2018

भावना या यातना

तुम बहाओ ना मुझे, फिर उसी भावना में.....

ठहर जाओ, न गीत ऐसे गाओ तुम,
रुक भी जाओ, प्रणय पीर ना सुनाओ तुम,
जी न पाऊँगा मैं, कभी इस यातना में....

न सुन सकूंगा, मैं तुम्हारी ये व्यथा!
फिर से प्रणय के टूटने की व्याकुल कथा,
टूट मैं ही न जाऊँ, कहीं इस यातना में....

यूं इक-इक दल, बिखरते हैं फूल से,
आह तक न भरते है, वो लबों पे भूल से,
यूं ना डुबोओ, तुम मुझे यूं भावना मे....

यूं दर्द के साज, क्यूं बजा रहे हो तुम,
सो चुके हम चैन से, क्यूं जगा रहे हो तुम,
चैन खो न जाए मेरा, इस यातना में.....

हाल पे मेरी, जरा तरस खाओ तुम...
भावना या यातना! ये मुझको बताओ तुम,
गुजरा हूं मैं भी, कभी इस यातना मे.....

बह न जाऊँ मैं, कहीं फिर उसी भावना में......

Saturday, 11 November 2017

750वीं रचना

स्व-अनुभवों की विवेचना है मेरी 750वीं रचना,
रचनाओं की भीड़ में लिख रहा हूँ एक और रचना....

नाम मात्र की नहीं ये रचना,
पंख ले उड़ान भर रही हो जैसे कोई संकल्पना,
पीड़ संग जन्म रही जैसे कोई कल्पना,
स्व-अनुभवों की हो रही जैसे आत्म-विवेचना......

रचनाओं की भीड़ में है लिख रहा मैं 750वीं रचना......

ख्यालों की जैसे कोई गहना,
पहनता हूँ हरबार जब भी ख्यालों को हो सँवरना,
सँवरते हैं ख्याल, सँवरती है ये कल्पना,
नव-श्रृंगार कर, जीवंत हो उठती है रचना......

रचनाओं की भीड़ में लिख रहा हूँ एक और रचना......

भावावेग का ज्वार सा उठना,
विरह, प्रेम, गीत, एकाकीपन का शब्दों में ठलना,
भाव के सागर में हो जैसे गोते लगाना,
स्वतः स्फूर्त कविताओं का मूर्त हो उठना......

स्व-अनुभवों की विवेचना है ये मेरी 750वीं रचना.....
रचनाओं की भीड़ में लिखता रहा हूँ एक और रचना...

❤नमन कर रही सबों को मेरी ये 750वीं रचना❤
CELEBRATING 750th STEP
& the Way Forward.......

Thanks Everyone for Constantly Encouraging Me...

Wednesday, 8 June 2016

सूखते रिश्ते

बदलते मौसम की बयार में सूख रहे हैं ये रिश्ते भी...,

कुम्हलाए हैं अब रिश्तों के नाजुक फूल,
जज्बातों की गर्म हवाओं में जलकर,
बदलते मौसम की अनचाही आँधी मे झूलकर,
एहसासों के जमीं पर बिखरे हैं अब धूल ही धूल।

फफूँद उग आए हैं रिश्तों की क्यारी में,
सुखे है यहाँ सभी भावनाओं के फूल,
बिखर चुके पंख कोमल सी कल्पनाओं के,
स्वतः पूर्णविराम लगे हैं जीवन की आशाओं पर।

कशिश बस एक बाकी है उन रिश्तों की,
कभी खुश्बु सी आती है उन फूलों की,
खिलकर बिखरे थे जो मन की इस क्यारी में,
अब कड़वाहट बाँकी है उन रिश्तों की फुलवारी में।

दरारें हैं अब कैसी रिश्तों की इस गाँठ में,
क्युँ अहम इंसानों के भारी हैं रिश्तों पर,
तृष्णा, लालसा, अहम, अभिलाषा हावी संबंधों पर,
कुठाराघात करते रहे वो दिल की लचीली दीवारों पर।

बदलते एहसासों के साथ में टूट रहे हैं ये रिश्ते भी...,

Tuesday, 19 April 2016

मानव बन सकें हम

अवधारणा ही रही यह मेरी कि मानव हैं हम,
विमुख भावनाओं से सर्वदा, क्या सच में मानव हैं हम?

कहीं तोड़ देते ये हृदय किसी का,
जाति-धर्म की संवेदनहीन सियासत में,
घृणा द्वेष दे जाते ये यहाँ  विरासत में,
स्व से उपर कहाँ उठ सके हम,
भावनाओं से परे लगे हैं, निज की स्वागत में।

विडम्बना जीवन की, कि कहलाते मानव हैं हम!
खून पी जाते हैं नरभक्षी बन, क्या सच में मानव हैं हम?

सद्भाव की सारी बातें लगती हैं तृष्णा सी,
जहर घुल चुके दिलों में सुखचैन हुए मृगतृष्णा सी,
काँटे बोए है खुद ही, काट रहे फसल घृणा की,
निज स्वार्थ से ऊपर कहाँ उठे हम,
बातें करते हैं हम विश्व और जगत कल्याण की।

प्रार्थना है मेरी ईश्वर से कि मानव तो बन सकें हम!
बीज भावना के बोएँ, जीवन के सम्मुख हो सकें हम!

Saturday, 6 February 2016

कुछ दे न सका उसको

कुछ दे न सका उसको मै जीवन में,
कुछ समझ न सका पीड़ा, वेदना, भावना उसकी।

पीड़ा कौन सी तड़पाती उसे,
पीड़ हृदय के मैं समझ न सका उसकी,
वेदना किस व्यथा की उसे,
व्यथा का विस्तार समझ न सका उसकी,
देखती रही वो आँखें मुझको ही,
मन के मृदुभाव कभी पढ़ न सका उसकी,

कुछ समझ न सका पीड़ा, वेदना, भावना उसकी।

कुछ दे न सका उसको मैं,
कांटे रास्तों के मैं चुन न सका उसकी,
जाने किस आग मे राख वो,
आग दामन से मैं बुझा न सका उसकी,
भटकती है अब भी रूह वो,
स्याह काली रातों में दरबदर यहाँ उसकी।

कुछ समझ न सका पीड़ा, वेदना, भावना उसकी।

पर विदा इस दुनियाँ से अब वो,
जरूरत दुनियादारी की नही अब उसको,
आग, प्यास, पीड़ा, वेदना, काँटों से अब परे वो,
जाने किसकी प्यास थी उन आँखों को,
तलाशती थी क्या अंत तक उदास आँखें उसकी,
पूछ भी न पाए लब मेरे जीवन भर उससे।

कुछ दे न सका उसको मै जीवन में,
कुछ समझ न सका पीड़ा, वेदना, भावना उसकी।