हर पात पर, शायद कोई पैगाम लिख रहा है,
न जाने ये क्या, शाम लिख रहा है!
ज्यूँ, बुलाता है वो, मन को टटोलकर,
यूँ सरेशाम, लौट आते हैं वो पंछी डोलकर,
चहकती है शाम, ज्यूँ बिखरे हों जाम,
बातें तमाम, उनके ही नाम लिख रहा है,
जाने, ये शाम क्या लिख रहा है!
हर पात पर, शायद कोई पैगाम लिख रहा है,
न जाने ये क्या, शाम लिख रहा है!
कैसे मन को बांधे, क्यूँ ना रख दे खोलकर,
बिखेरे हैं लाल रंग, किरणों ने तमाम,
सिंदूरी राज, वो क्या आज लिख रहा है,
जाने, ये शाम क्या लिख रहा है!
हर पात पर, शायद कोई पैगाम लिख रहा है,
न जाने ये क्या, शाम लिख रहा है!
पात-पात रंगे गुलाल, कैसे डोलकर,
हर पात पर लिखी है, बात कुछ बोलकर,
ऐ शाम, कर दे जरा कुछ बातें आम,
क्यूँ चुपचाप, खत गुमनाम लिख रहा है,
जाने, ये शाम क्या लिख रहा है!
हर पात पर, शायद कोई पैगाम लिख रहा है,
न जाने ये क्या, शाम लिख रहा है!
आएंगे वो, पढ़ ना पाएंगे बोलकर,
कुछ कह भी न पाएंगे, वो मुँह खोलकर,
लबों से कह भी दे, तू किस्से तमाम,
बयाँ क्यूँ, आधी ही हकीकत, कर रहा है,
जाने, ये शाम क्या लिख रहा है!
हर पात पर, शायद कोई पैगाम लिख रहा है,
न जाने ये क्या, शाम लिख रहा है!
- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा
(सर्वाधिकार सुरक्षित)