Wednesday, 7 September 2016

बनफूल

बनफूल..उग आया था एक, मेरे बाग के कोने में कहीं।

चुपचाप ही! अचानक!...न जाने कब से..!
आया वो....न जाने कहाँ से..., किस घड़ी में.....
पड़ी जब मेरी नजर पहली बार उसपर,
मुस्कुराया था खुशी से वो बनफूल, मुझे देखकर...
जैसे था उसे इन्तजार मेरा ही कहीं ना कहीं....!

बनफूल..उग आया था एक, मेरे बाग के कोने में कहीं।

अपनत्व सी जगी उस मासूम सी मुस्कान से,
खो गया कुछ देर मैं..उसके अपनत्व की छाँव में...
पुलकित होता रहा कुछ देर मैं उसे देखकर,
उसकी अकेलेपन का शायद बना था मैं हमसफर...
बेखबर था मैं, द्वेष से जल उठी थी सारी कली....!

बनफूल..उग आया था एक, मेरे बाग के कोने में कहीं।

अचानक ही!....जोर से....न जाने किधर से...!
प्रबल आँधी.. द्वेष की बह रही थी बाग में किधर से,
बनफूल था दुखी बाग की दुर्दशा देखकर,
मन ही मन सोचता, न आना था कभी मुृझको इधर...
असह्य पीड़ा लिए, हुआ था दफन वो वहीं कहीं....!

बनफूल..उग आया था एक, मेरे बाग के कोने में कहीं।

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