दब चुकी थी वो समय की तहों में,
परत धूल की जम गई थी उन गुजरे लम्हों में,
अक्सर वो झांकता था सिराहने तले से,
कसक ये कैसी दे गई वो भूली-बिसरी सी बातें ....
वो हवाओं में टहनियों का झूल जाना,
उन बलखाती शाखों को देख सब भूल जाना,
लाज के घूंघट लिए वो खिलती सी कलियाॅ,
मुस्कुराते से लम्हों में घुलती वो मिश्री सी बतियाॅ,
कसक कितने ही साथ लाईं वो धुंधली सी यादें .....
जैसे फेंका हो कंकड़ सधे हाथों से किसी ने,
ठहरी हुई झील सी इस शान्त मन में,
वलय कितने ही यादों के अब लगे हैं बिखरने,
वो तस्वीर धुंधली सी झिलमिलाने लगी फिर मन में ,
कसक फिर से जगी है, पर है अब कहाॅ वो बातें ......
पलटे नहीं जाएंगे अब मुझसे फिर वो सिराहने,
अब लौट कर न आना ऐ धुंथली सी यादें,
तू कभी मुड़कर न आना फिर इस झील में नहाने,
पड़ा रह सिराहने तले, तू यूॅ ही धूल की तहों में,
कसक अब न फिर जगाना, तू ऐ गुजरी सी यादें .....
पलटे नहीं जाएंगे अब मुझसे फिर वो सिराहने,
अब लौट कर न आना ऐ धुंथली सी यादें,
तू कभी मुड़कर न आना फिर इस झील में नहाने,
पड़ा रह सिराहने तले, तू यूॅ ही धूल की तहों में,
कसक अब न फिर जगाना, तू ऐ गुजरी सी यादें .....
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