Wednesday, 25 January 2017

चाहत के सिलसिले

ये जादू है कोई! या जुड़ रहे हैं कोई सिलसिले?....

बेखुदी में खुद को कहीं, अब खोने सा लगा हूँ मैं,
खुद से हीं जुदा कहीं रहने लगा हूँ मैं,
कुछ अपने आप से ही अलग होने लगा हूँ मैं,
काश! धड़कता न ये मन, खोती न कही दिल की ये राहे,
काश! देखकर मुझको झुकती न वो पलकें.....

ये कैसा है असर! क्या है ये चाहत के सिलसिले?...

अंजान राहों पे कहीं, भटकने सा लगा हूँ मैं,
भीड़ में तन्हा सा रहने लगा हूँ मैं,
या ले गया मन कोई, अंजान अब तक हूँ मैं,
काश! पिघलता न ये मन, डब-डबाती न मेरी ये आँखें,
काश! अपनापन लिए कुछ कहती न वो पलकें.....

ये रिश्ता है कोई? या है ये जन्मों के सिलसिले?.....

वक्त ठहरा है वहीं, बस बीतने सा लगा हूँ मैं,
जन्मों के तार यूँ ही ढूंढने लगा हूँ मैं,
या डूबकर उन आँखों में ही, उबरने लगा हूँ मैं,
काश ! तड़पता न ये मन, अनसुनी होती न मेरी ये आहें,
काश! सपनो के शहर लिए चलती न वो पलकें.....

ये कैसी है चाहत? या हसरतो के हैं ये सिलसिले?...

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