Saturday, 1 April 2017

अंजाने में तुम बिन

अंजाने में कुछ पल को यदि तुम्हे भूल भी पाता मैं .....!

खुद ही खुद अकेलेपन में फिर क्या गुनगुनाता मैं!
समय की बहती धार में क्या उल्टा तैर पाता मैं?
क्या दिन को दिन, या रात को रात कभी कह पाता मैं?
अपने साये को भी क्या अपना कह पाता मै?

अंजाने में कुछ पल को यदि तुम्हे भूल भी पाता मैं .....!

सितारों से बींधे आकाश की क्या सैर कर पाता मैं?
सहरा की सघन धूप को क्या सह पाता मैं!
क्या अपने होने, न होने का एहसास भी कर पाता मैं?
अपने जीवित रहने की वजह क्या ढूढता मैं?

अंजाने में कुछ पल को यदि तुम्हे भूल भी पाता मैं .....!

उन लम्हों की दिशाएँ फिर किस तरफ मोड़ता मैं?
देती हैं जो सदाएँ वो पल कहाँ छोड़ता मैं?
क्या उन उजली यादों से इतर मुँह भी मोड़ पाता मैं?
अपने अन्दर छुपे तेरे साए को कहाँ रखता मैं?

अंजाने में कुछ पल को यदि तुम्हे भूल भी पाता मैं .....!

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