Sunday, 24 January 2021

क्या रह सकोगे

उन्मुक्त कल्पनाओं के, स्वप्ननिल आकाश में,
क्या सदा, रह सकोगे तुम?

यूँ तो, विचरते हो, मुक्त कल्पनाओं में, 
रह लेते हो, इन बंद पलकों में,
पर, नीर बन, बह जाते हो,
कब ठहरते हो तुम!

उन्मुक्त कल्पनाओं के, स्वप्ननिल आकाश में,
क्या सदा, रह सकोगे तुम?

वश में कहाँ, ढ़ह सी जाती है कल्पना,
ये राहें, रोक ही लेती हैं वर्जना, 
इक चाह बन, रह जाते हो,
कब ठहरते हो तुम!

उन्मुक्त कल्पनाओं के, स्वप्ननिल आकाश में,
क्या सदा, रह सकोगे तुम?

यूँ ना होता, ये स्वप्निल आकाश सूना!
यूँ, जार-जार, न होती कल्पना,
इक गूंज बन, बह जाते हो,
कब ठहरते हो तुम!

उन्मुक्त कल्पनाओं के, स्वप्ननिल आकाश में,
क्या सदा, रह सकोगे तुम?

तुम कामना हो, या, बस इक भावना,
कोरी.. कल्पना हो, या साधना,
यूँ, भाव बन, बह जाते हो,
कब ठहरते हो तुम!

उन्मुक्त कल्पनाओं के, स्वप्ननिल आकाश में,
क्या सदा, रह सकोगे तुम?

ढूंढूं कहाँ, आकाश का कोई किनारा,
असंख्य तारों में, प्यारा सितारा,
तुम, दिन ढ़ले ढ़ल जाते हो,
कब ठहरते हो तुम!

उन्मुक्त कल्पनाओं के, स्वप्ननिल आकाश में,
क्या सदा, रह सकोगे तुम?

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
   (सर्वाधिकार सुरक्षित)

38 comments:

  1. बहुत बहुत सुन्दर सराहनीय रचना

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  2. आपकी लिखी रचना ब्लॉग "पांच लिंकों का आनन्द" सोमवार 25 जनवरी 2021 को साझा की गयी है......... पाँच लिंकों का आनन्द पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!

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  3. ढूंढूं कहाँ, आकाश का कोई किनारा,
    असंख्य तारों में, प्यारा सितारा,
    तुम, दिन ढ़ले ढ़ल जाते हो,
    कब ठहरते हो तुम!.. पुरुषोत्तम जी आपने कल्पनाओं का बहुत सुंदर चित्रण किया है..

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  4. बहुत सशक्त रचना।
    राष्ट्रीय बालिका दिवस की बधाई हो।

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  5. नमस्ते,
    आपकी इस प्रविष्टि के लिंक की चर्चा सोमवार 25 जनवरी 2021 को 'शाख़ पर पुष्प-पत्ते इतरा रहे हैं' (चर्चा अंक-3957) पर भी होगी।--
    चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्त्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
    जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाए।
    --
    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।

    #रवीन्द्र_सिंह_यादव

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  6. ढूंढूं कहाँ, आकाश का कोई किनारा,
    असंख्य तारों में, प्यारा सितारा,
    तुम, दिन ढ़ले ढ़ल जाते हो,
    कब ठहरते हो तुम!...…...दिल में उतरती हुई हर एक पंक्ति बहुत सुंदर रचना बहुत बधाई आदणीय पुरूषोतम जी

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  7. बहुत सुंदर सृजन आदरणीय सर।
    सादर

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  8. अत्यंत भावपूर्ण अभिव्यक्ति । हर क्षण भाव होत न एक समान ।

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    1. बहुत-बहुत धन्यवाद आदरणीया। शुक्रिया।

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  9. उव्वाहहहह..
    जितने बार पढ़ें
    अलग ही दिखे
    सादर..

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  10. उन्मुक्त कल्पनाओं के,स्वप्निल आकाश में....
    भावों का भव्य सृजन..
    बेहतरीन रचना आदरणीय सर।
    सादर।

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  11. एक बार फिर आपकी इस सुंदर रचना को पढ़ने का अवसर मिला,फिर एक नई कल्पना,नए अहासो का समन्दर, आंखों के आगे घूम गया ।बहुत शुभकामनाएं आपको ।

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  12. उन्मुक्त कल्पनाओं के, स्वप्ननिल आकाश में,
    क्या सदा, रह सकोगे तुम?...वाह बहुत सुन्दर रचना👌

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  13. उन्मुक्त कल्पनाओं की निखार..भावभीनी सी..
    उम्दा

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  14. सुन्दर सब कुछ तो आसपास ही होता है पर सदैव मिल नहीं पाता।

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  15. रचनाओं की भीड़ में कई बार बहुत बेहतरीन रचनाएँ खो जाती हैं, पढ़ने की आदत होने पर भी ऐसा बहुत कुछ छूट जाता है जो उत्कृष्ट होता है।
    आपकी बेहद अच्छी रचनाओं में से एक है यह। संगीता दी का भी शुक्रिया कि यहाँ तक पहुँचाया।

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  16. तुम कामना हो, या, बस इक भावना,
    कोरी.. कल्पना हो, या साधना,
    यूँ, भाव बन, बह जाते हो,
    कब ठहरते हो तुम!
    वाह ! अप्राप्य से मन का विकल संवाद पुरुषोत्तम जी | सच में बहुत बढिया रचना जो पढने से रह गयी थी - क्यों भला !! आज पढ़ी तो मन को छू गयी | हार्दिक शुभकामनाएं आपके लिए | आपके ब्लॉग पर आना हमेशा अच्छा लगता है | सादर

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    1. अति सुखद टिप्पणी हेतु आभार आदरणीया रेणु जी।

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