कोई अरुचिकर कथा,
अंतस्थ पल रही मन की व्यथा,
शब्दवाण तैयार सदा....
वेदना के आस्वर,
कहथा फिरता,
शब्दों में व्यथा की कथा?
पर क्युँ कोई चुभते तीर छुए,
क्युँ भाव विहीन बहे,
श्रृंगार विहीन सी ये कथा,
रोमांच विहीन, दिशाहीन कथा,
कौन सुने, क्युँ कोई सुने?
इक व्यथित मन की अरुचिकर कथा!
किसी के कुछ कहने,
या किसी से कुछ कहने, या
इससे पहले कि
कोई मन की बात करे
या फिर रस की बरसात करे,
दिल के जज्बात
लम्हातों मे आकर कोई भरे,
खींच लेता वो शब्दवाण,
पिरो लेता बस
अपने शब्दों में अपनी ही कथा...
अपनी पीड़ा, अपनी व्यथा,
कौन सुने, क्युँ कोई सुने?
इक व्यथित मन की अरुचिकर कथा!
सबकी अपनी पीड़ा,
अपनी-अपनी सबकी व्यथा,
पीड़ा की गठरी
सब के सर इक बोझ सा रखा,
कोई अपनी पीड़ा
जीह्वा मे भरकर
घुटने टेक,
सर के बल लेट,
शब्दों पर लादकर चल रहा,
कौन सुने, क्युँ कोई सुने?
इक व्यथित मन की अरुचिकर कथा!
व्यथा की कथा रच-रच....
वाल्मीकि रामायण रच गए,
तुलसी रामचरितमानस,
वेदव्यास महाभारत,
और कृष्ण गीतोपदेश दे गए,
पढे कौन, क्युँ कोई पढे,
है कौन व्यथा से परे!
मैं शब्दों में बोझ भरूँ कैसे?
शब्दवाण बींधूँ कैसे,
एकाकी पलों में
खुद से खुद कहता व्यथा की कथा!
कौन सुने, क्युँ कोई सुने?
इक व्यथित मन की अरुचिकर कथा!
जी नमस्ते,
ReplyDeleteआपकी लिखी रचना हमारे सोमवारीय विशेषांक
२९ अप्रैल २०१९ के लिए साझा की गयी है
पांच लिंकों का आनंद पर...
आप भी सादर आमंत्रित हैं...धन्यवाद।
कौन सुने, क्युँ कोई सुने?
ReplyDeleteइक व्यथित मन की अरुचिकर कथा!
वाह अप्रतिम अद्भुत ।