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Sunday, 21 January 2018

आवाज न देना

ऐ भूली सी यादें, आवाज न देना तुम कभी....
सदियों की नीरवता से, मैं लौटा हूँ अभी अभी ।

सदियों तक था तुझमें ही अनुरक्त मै,
पाया ही क्या, जब तुझसे ही रहा विरक्त मैं?
मिली बस पीड़ा और बेचैन घड़ी,
अंतहीन प्रतीक्षा और यादों की लड़ी,
उस वीहड़ घाटी से मैं लौटा हूँ अभी अभी...

ऐ भूली सी यादें, आवाज न देना तुम कभी....

डूबा था मैं क्षितिज की नीरवता में,
तुम ही ले आए थे मुझको उस वीहड़ में!
असहनीय उदासीनता के क्षण में
पग-पग नीरवता के उस गहरे वन में,
उस निर्वात से बस मैं लौटा हूँ अभी अभी...

ऐ भूली सी यादें, आवाज न देना तुम कभी....

बिताई अरसों मैने इक प्रतीक्षा में,
तटस्थ रहा दुनिया से इक तेरी इच्छा में!
काटी तन्हा कितनी निर्जन रातें,
पाई है अंतहीन प्रतीक्षा की सौगातें,
उस प्रतीक्षा से बस मैं लौटा हूँ अभी-अभी....

ऐ भूली सी यादें, आवाज न देना तुम कभी....
सदियों की नीरवता से, मैं लौटा हूँ अभी अभी ।

Saturday, 13 January 2018

अलाव

रात भर जलती रही थी उसके मन की अलाव...

नंगे बच्चों की भूख, तड़प की पीड़ा,
माथे पे शिकन, आँखों में जलन, काँपता तन,
सुलगाती रही उस मन में इक अलाव....
न आया कोई भी सुधि लेने उस अलाव की...

ठिठुरती ठंढ़ मे, क्षणिक राहत को,
चौराहे पर भी जलाई गई थी इक अलाव,
ठहाकों की गूंज में डूबा था वो गाँव,
पर जलाती रही थी उसे, मन की वो अलाव ....

मन की अलाव भारी पड़ी थी ठंढ़ पर,
निकल पड़ा वो बेचारा काम की तलाश पर,
बच्चों के पेट की सुलगती वो अलाव,
जलाती रही ठंढ मे भी चिंगारी बन बनकर....

कुछ पैसे आए थे उसकी हाथों पर,
कम थे फिर भी वो, महंगाई के अलाव पर,
तनाव दे गई थी वो जलती अलाव,
आज भी न बुझनी थी मन की वो अलाव...

रात भर जलती रही, फिर उस मन की अलाव!
और, चौराहे पर भी जलती रही इक अलाव!

Thursday, 23 November 2017

अरुचिकर कथा

कोई अरुचिकर कथा,
अंतस्थ पल रही मन की व्यथा,
शब्दवाण तैयार सदा....
वेदना के आस्वर,
कहथा फिरता,
शब्दों में व्यथा की कथा?
पर क्युँ कोई चुभते तीर छुए,
क्युँ भाव विहीन बहे,
श्रृंगार विहीन सी ये कथा,
रोमांच विहीन, दिशाहीन कथा,
कौन सुने, क्युँ कोई  सुने?
इक व्यथित मन की अरुचिकर कथा!

किसी के कुछ कहने,
या किसी से कुछ कहने, या
इससे पहले कि
कोई मन की बात करे 
या फिर रस की बरसात करे, 
दिल के जज्बात 
लम्हातों मे आकर कोई भरे, 
खींच लेता वो शब्दवाण,
पिरो लेता बस
अपने शब्दों में अपनी ही कथा...
अपनी पीड़ा, अपनी व्यथा,
कौन सुने, क्युँ कोई  सुने?
इक व्यथित मन की अरुचिकर कथा!

सबकी अपनी पीड़ा,
अपनी-अपनी सबकी व्यथा,
पीड़ा की गठरी
सब के सर इक बोझ सा रखा,
कोई अपनी पीड़ा
जीह्वा मे भरकर
घुटने टेक,
सर के बल लेट,
शब्दों पर लादकर चल रहा,
कौन सुने, क्युँ कोई  सुने?
इक व्यथित मन की अरुचिकर कथा!

व्यथा की कथा रच-रच....
वाल्मीकि रामायण रच गए,
तुलसी रामचरितमानस,
वेदव्यास महाभारत,
और कृष्ण गीतोपदेश दे गए,
पढे कौन, क्युँ कोई पढे,
है कौन व्यथा से परे!
मैं शब्दों में बोझ भरूँ कैसे?
शब्दवाण बींधूँ कैसे,
एकाकी पलों में 
खुद से खुद कहता व्यथा की कथा!
कौन सुने, क्युँ कोई  सुने?
इक व्यथित मन की अरुचिकर कथा!