Friday, 11 May 2018

भोर की पहली किरण

यूं अंगड़ाई लेकर उठी ये भोर की पहली किरण!

घुल गई है रंग जैसे बादलों में,
सिमट रही है चटक रंग किसी के आँचलों में,
विहँसती खिल रही ये सारी कलियाँ,
डाल पर डोलती हैं मगन ये तितलियाँ,
प्रखर शतदल हुए हैं अब मुखर,
झूमते ये पात-पात खोए हुए हैं परस्पर,
फिजाओं में ताजगी भर रही है पवन!

यूं अंगड़ाई लेकर उठी ये भोर की पहली किरण!

निखर उठी है ये धरा सादगी में,
मन को लग गए हैं पंख यूं ही आवारगी में,
चहकने लगी है जागकर ये पंछियाँ,
हवाओं में उड़ चली है न जाने ये कहाँ,
गुलजार होने लगी ये विरान राहें,
बेजार सा मन, अब भरने लगा है आहें,
फिर से चंचल होने लगा है ये पवन!

यूं अंगड़ाई लेकर उठी ये भोर की पहली किरण!

गूंज सी कोई उठी है विरानियों में,
गीत कोई गाने लगा है कहीं रानाईयों में,
संगीत लेकर आई ये राग बसंत,
इस विहाग का न आदि है न कोई अंत,
खुद ही बजने लगे हैं ढोल तासे,
मन मयूरा न जाने किस धुन पे नाचे,
रागमय हुआ है फिर से ये भवन!

यूं अंगड़ाई लेकर उठी ये भोर की पहली किरण!

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