कल ही दिवाली थी...
कल ही, जलते दीयों को बुझते देखा मैनें....कल ही दिवाली थी...
शामत, अंधेरों की, आनेवाली थी!
कुछ दीप जले, प्रण लेकर,
रौशन हुए, कुछ क्षण वो भभककर,
फिर, उनको बुझता देखा मैनें,
अंधेरी रातों को,
फिर से गहराते देखा मैनै...
कल ही दिवाली थी...
कल ही, जलते दीयों को बुझते देखा मैनें....
कमी, आभा की थी?
या, गर्भ में दीप के, आशा कम थी?
बुझे दीप, यही प्रश्न देकर,
निरुत्तर था मैं, उन प्रश्नों को लेकर!
दृढ-स॔कल्प किया फिर उसने,
दीप्त दीपों को,
तिमिर से लड़ते देखा मैनें....
कल ही दिवाली थी...
कल ही, जलते दीयों को बुझते देखा मैनें....
अलख, कहाँ थी....
इक-इक दीप में, विश्वास कहाँ थी!
संकल्प के कुछ कण लेकर,
भीष्म-प्रण लिए, बिना जलकर,
इक जंग लड़ते देखा मैनें,
तम की रातों को,
फिर से गहराते देखा मैनै...
अलख, कहाँ थी....
इक-इक दीप में, विश्वास कहाँ थी!
संकल्प के कुछ कण लेकर,
भीष्म-प्रण लिए, बिना जलकर,
इक जंग लड़ते देखा मैनें,
तम की रातों को,
फिर से गहराते देखा मैनै...
कल ही दिवाली थी...
कल ही, जलते दीयों को बुझते देखा मैनें....
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