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Monday, 24 October 2022

अतः शीघ्रता कर

रात भर, अंधियारों से लड़कर,
जरा सा, थक चला!
शीघ्रता कर, इक दीप और जला!

ताकि, दीप्त सा वो राह, प्रदीप्त रहे,
अंधियारा, संक्षिप्त रहे,
मुक्तकंठ पल हों, आशाओं के कल हों,
निराशा के क्षण, लुप्त रहें!

अतः शीघ्रता कर......

कदम डगे ना, रोभर उन, राहों पर,
तमस, हंसे ना तुझपर,
जलते से, नन्हें प्यालों में, संताप जले,
अधर-अधर, बस हास पले!

अतः शीघ्रता कर......

आलोकित कर, साधना का पथ,
तू साध जरा, यह रथ,
हों बाधा-विहीन, अग्रसर हों पग-पग,
मन-विहग, हर डाल मिले!

अतः शीघ्रता कर......

रात भर, अंधियारों से लड़कर,
जरा सा, थक चला!
शीघ्रता कर, इक दीप और जला!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा
   (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Thursday, 8 November 2018

बुझते दीप

कल ही दिवाली थी...
कल ही, जलते दीयों को बुझते देखा मैनें....

कल ही दिवाली थी...
शामत, अंधेरों की, आनेवाली थी!
कुछ दीप जले, प्रण लेकर,
रौशन हुए, कुछ क्षण वो भभककर,
फिर, उनको बुझता देखा मैनें,
अंधेरी रातों को,
फिर से गहराते देखा मैनै...

कल ही दिवाली थी...
कल ही, जलते दीयों को बुझते देखा मैनें....

कमी, आभा की थी?
या, गर्भ में दीप के, आशा कम थी?
बुझे दीप, यही प्रश्न देकर,
निरुत्तर था मैं, उन प्रश्नों को लेकर!
दृढ-स॔कल्प किया फिर उसने,
दीप्त दीपों को,
तिमिर से लड़ते देखा मैनें....

कल ही दिवाली थी...
कल ही, जलते दीयों को बुझते देखा मैनें....

अलख, कहाँ थी....
इक-इक दीप में, विश्वास कहाँ थी!
संकल्प के कुछ कण लेकर,
भीष्म-प्रण लिए, बिना जलकर,
इक जंग लड़ते देखा मैनें,
तम की रातों को,
फिर से गहराते देखा मैनै...

कल ही दिवाली थी...
कल ही, जलते दीयों को बुझते देखा मैनें....

Tuesday, 6 November 2018

मेरी दिवाली

दीपक, इक मै भी चाहता हूँ जलाना....

वो नन्हा जीवन,
क्यूँ पल रहा है बेसहारा,
अंधेरों से हारा,
फुटपाथ पर फिरता मारा....

सारे प्रश्नों के
अंतहीन घेरो से बाहर निकल,
बस चाहता हूँ सोचना,

दीपक, इक मै भी चाहता हूँ जलाना....

वो वृहत आयाम!
क्यूँ अंधेरों में है समाया,
जीत कर मन,
अनंत नभ ही वो कहलाया....

सारे आकाश के
अँधेरों को अपनी पलकों पर,
बस चाहता हूँ तोलना,

दीपक, इक मै भी चाहता हूँ जलाना....

Thursday, 20 October 2016

दीपावली / दिवाली

इक दीप मन में जले, तम की भयावह रात ढ़ले...

है दुष्कर सी ढ़लती ये शाम,
अंधेरों की ओर डग ये पल-पल भरे,
है अंधेरी स्याह सी ये रात,
तिल-तिल सा ये जीवन जिसमें गले,
चाहूँ मैं वो दीपावली, जो ऊजाले जीवन में भरे....

है बुझ रही वो नन्ही सी दीप,
जूझकर तम से प्रकाश जिसने दिए,
है वो ईक आस का प्रतीक,
कुछ बूँद अपनी स्नेह के उसमें भरे,
मना लूँ मैं वो दीपावली, दीप आस का जलता रहे....

है संशय के विकट बादल घिरे,
अज्ञानता की घनघोर सी चादर लिए,
ताले विवेक पर हैं यहाँ जड़े,
प्रकाश ज्ञान का मन में अब कौन भरे?
मनाऊँ अब वो दीपावली, वैर, द्वेश, अज्ञान जले....

इक दीप मन में जले, तम की भयावह रात ढ़ले...