Tuesday, 18 December 2018

अभिलाषा

अलसाई सी पलकों में, उम्मीदें कई लिए,
यूँ देखता है रोज, आईना मुझे....

अभिलाषा की, इक नई सूची लिए,
रोज ही जगती है सुबह,
आशाएँ, चल पड़ती हैं इक उम्मीद लिए...

अभिलाषाओं की, इस बिसात पर,
चाल चलती है जिन्दगी,
उम्मीदें, भटकाती हैं अजनबी राहों पर....

निकल पड़ते हैं, घौसलों से विहग,
धुंधलाए से आकाश में,
समयबद्ध, प्रवाह में डोलते हुए डगमग....

थक हार, फिर लौट आती है सांझ,
गिनता है रातों के तारे,
बांझ होती हुई, उम्मीदों की टोकरी लिए...

छद्म आत्म-विभोर कराते आकाश,
सीमाविहीन सी शून्यता,
गहराती सी, रिक्तता का देती है आभास....

यथार्थ के इस अन्तिम से छोर पर,
आईने व चेहरों के बीच,
अभिलाषाएँ, हावी हैं फिर से उम्मीद पर...

खामोश चेहरा लिए, बोलता हैं आईना,
यूँ टोकता है रोज, आईना मुझे.....

No comments:

Post a Comment