छवि अपनी, मैं तकता हूँ जिसमें हरदम,
मोहक है मुझको, वो ही दर्पण....
प्रतिकृति दिखलाता है वो मेरी,
बेशक कुछ कमियाँ गिनवाता है वो मेरी,
दिखलाता है, वो व्यक्तित्व मेरा,
बतलाता है, ये दामन दागी है या कोरा,
मोह लिया है, यूँ जिसने मन मेरा,
मोहक है वो ही दर्पण.....
छवि अपनी, मैं तकता हूँ जिसमें हरदम...
पुण्य-पाप के, हम सब हैं वाहक,
निष्पापी होने का भ्रम, पालते हैं नाहक,
मन के ये भ्रम, तोड़ता है बिंब,
नजरें फेर जब, बोलता है प्रतिबिम्ब,
दिखलाता है, इक नया रूप मेेेेरा,
मोहक है वो ही दर्पण.....
छवि अपनी, मैं तकता हूँ जिसमें हरदम...
अपना अक्श, ढूंढने को अक्सर,
अपना परिचय खुद से, पाने को अक्सर,
जाता हूँ मैं, सम्मुख दर्पण के,
उभर आता है, समक्ष मेरे मेरा ही सच,
दिखलाता है, कैसा है मन मेरा,
मोहक है वो ही दर्पण.....
छवि अपनी, मैं तकता हूँ जिसमें हरदम,
मोहक है मुझको, वो ही दर्पण....
मोहक है मुझको, वो ही दर्पण....
प्रतिकृति दिखलाता है वो मेरी,
बेशक कुछ कमियाँ गिनवाता है वो मेरी,
दिखलाता है, वो व्यक्तित्व मेरा,
बतलाता है, ये दामन दागी है या कोरा,
मोह लिया है, यूँ जिसने मन मेरा,
मोहक है वो ही दर्पण.....
छवि अपनी, मैं तकता हूँ जिसमें हरदम...
पुण्य-पाप के, हम सब हैं वाहक,
निष्पापी होने का भ्रम, पालते हैं नाहक,
मन के ये भ्रम, तोड़ता है बिंब,
नजरें फेर जब, बोलता है प्रतिबिम्ब,
दिखलाता है, इक नया रूप मेेेेरा,
मोहक है वो ही दर्पण.....
छवि अपनी, मैं तकता हूँ जिसमें हरदम...
अपना अक्श, ढूंढने को अक्सर,
अपना परिचय खुद से, पाने को अक्सर,
जाता हूँ मैं, सम्मुख दर्पण के,
उभर आता है, समक्ष मेरे मेरा ही सच,
दिखलाता है, कैसा है मन मेरा,
मोहक है वो ही दर्पण.....
छवि अपनी, मैं तकता हूँ जिसमें हरदम,
मोहक है मुझको, वो ही दर्पण....
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